आप सब ने एक पुरानी कहावत सुनी होगी ‘घर का भेदी, लंका ढाये’ आजकल इस कहावत के चरितार्थ हो जाने का डर बहुजन समाज पार्टी कि प्रमुख बहन मायावती कोजरूर सता रहा होगा। बसपा के दो दिग्गज नेता स्वामी प्रसाद मौर्य और आर के चौधरी ने ऐसे समय में पार्टी छोड़ी है जब विधानसभा चुनावों में कुछ ही महीने शेष हैं।दो वरिष्ठ नेताओं का पार्टी प्रमुख पे टिकटों कि खरीद-बिक्री का आरोप लगाते हुए पार्टी को छोड़ के चले जाना बसपा की विधानसभा तैयारियों को काफ़ी झटका देनेवाला साबित हुआ है। मायावती और उनके करीबी चाहे लाख दावे कर ले कि दोनों नेताओं ने अपने स्वार्थ कि पूर्ति न होने के कारण, अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा केलिए पार्टी छोड़ी है और उनके जाने से पार्टी को कोई फर्क नहीं पड़ता है मगर इतना साफ है कि बसपा के आत्मविश्वास और चुनावी तैयारियों को काफी नुकसान हुआ है।
मायावती ने यह भी कहा कि जो लोग बसपा को छोड़ कर गए उनका राजनैतिक कैरियर खत्म हो गया। यह बात बहुत हद तक सही हो सकती है मगर पूर्णतः सत्यनहीं। बागियों कि खासियत यही होती है कि वो कोई बड़ा उलटफेर कर सकते हैं।
मायावती के पहले से भी बहुत विरोधी हैं जिनमे से कुछ काशीराम के समय के बसपा के पूर्व नेता हैं और कुछ और लोग भी हैं जो उनके खिलाफस्वतंत्र रूप से अभियान चला रहे हैं।
मौर्य कुशवाहा समुदाय से आये हैं जो संख्याबल के हिसाब से काफी मजबूत जाती है और चौधरी जो कि पासी समुदाय से ताल्लुक रखते हैं, उन्होंने भी मायावती कीछवि पे तगड़ा प्रहार आरंभ कर दिया है। दोनों बसपा के पुराने कार्यकर्त्ता और नेता रहे हैं, और मायावती पर सीधा-सीधा आरोप लगा रहे हैं की अम्बेदकर और काशीरामके सोच और संकल्प को किनारे रख वे सिर्फ स्वार्थपूर्ति में लगी हुई हैं। पार्टी कि आंतरिक व्यवस्था से ताल्लुक रखने वाले लोग अगर ऐसे आरोप लगाये तो जाहिर सीबात है कि अन्य विरोधियों कि तुलना में उनकी बातों को अधिक गंभीरता से लिया जायेगा।
मौर्य और चौधरी, दोनों ही अपने समुदाय के बड़े नेता हैं। मौर्य चार बार विधायक रहे हैं वहीं चौधरी भी तीन बार विधानसभा जीते हैं। हालांकि, 2014 चौधरीमोहनलालगंज सीट से चुनाव हार गए थे मगर फिर भी उन्हें 3 लाख से अधिक वोट मिले थे।
अब जब मौर्य ने यह आरोप लगाया कि 56 प्रतिशत ओबीसी उम्मीदवारों को टिकट बंटवारे में दरकिनार कर दिया गया और चौधरी ने पार्टी छोड़ दी है तो बसपा केजातीय समीकरण पर बहुत बुरा असर पड़ेगा। चौधरी पासी समुदाय से आते हैं जिसकी प्रदेश कि दलित जनसंख्या में 16 प्रतिशत हिस्सेदारी है, अब मायावती के विरोधीयह प्रचार कर सकते हैं कि मायावती केवल चर्मकार समुदाय की नेता हैं। चमार और दूसरी जातियों के बीच संयम बनाकर रखना बसपा के लिए हमेशा एक चनौती रहीहै। जहाँ चमार पुरे प्रदेश में फैले हुए हैं, वहीं पासी लखनऊ और इलाहाबाद के आसपास कि लगभग 50 विधानसभा सीटों पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।( प्रदेश में403 विधानसभा और 80 लोकसभा सीटे हैं )
दोनों बागियों ने जो पैसे लेकर टिकट देने और कार्यकर्ताओं को नजरअंदाज करने के आरोप लगाये हैं उससे शहरी वोटरों के बीच मायावती कि छवि धूमिल होने की प्रबलसंभावना है। यह वोटरों का वह तबका है जिसको मायावती अपनी सख्त कानून व्यवस्था के दावों से लुभाने का प्रयास करती हैं।
इन दोनों का पार्टी छोड़ना अन्य उपेक्षित महसूस कर रहे नेताओं को बगावत के लिए उकसा सकता है और पार्टी के भीतर अब बदलाव का स्वर भी तेज होगा। टिकटबंटवारे में बार-बार उम्मीदवारों के नाम बदले जाना पार्टी के भीतर संघर्ष कि स्थिती पैदा कर रहा है और ये बात मायावती कि चिंता को और बढ़ा देगी।
पिछले दो चुनावों में बेहद खराब प्रदर्शन के बावजूद भी पार्टी की कार्यप्रणाली में कोई खास बदलाव नहीं आया है। पार्टी के वरिष्ठ नेता तो कहते हैं कि मायावती एकमजबूत विकल्प के तौर पर उभरेंगी, परन्तु इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि उपेक्षित नेता और कार्यकर्ता परेशानी नहीं तो सिरदर्द जरूर बन सकते हैं बसपाके लिए। बसपा तो पहले भी बहुत लोग छोड़ कर गए हैं मगर उनमे से कोई भी मौर्य और चौधरी इतना मुखर नहीं था। मौर्य ने काफी जोरदार हमला करते हुए काशीरामके मिशन को बेचने का आरोप लगाया और चौधरी ने तो यहाँ तक कह दिया कि बहनजी पार्टी को किसी रियल एस्टेट बिज़नेस की तरह चला रही हैं।
अब इस बात में कोई दोराय नहीं होनी चाहिए कि बसपा की राह कांटो से भरी हुई है और मायावती जी को आत्मचिंतन करने कि सख्त जरूरत है। खैर, समय सर्वाधिकबलवान है और यह सबकी दिशा और दशा तय कर देता है, इसलिए अपनी ओर से इतना ही कहूंगा कि आगे-आगे देखिये, होता है क्या।
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