हमारे देश में ‘धर्म’ को लेकर खूब बवाल मचता है, इसी के नाम पे वोट बैंकों की राजनीति खूब फलती-फूलती है और नफरत और उन्माद फैलाना तो बहुत छोटी बात है। हमारे यहाँ हिंदुत्व की कुरीतियां उजागर कर, बतलाकर, इस प्राचीन व्यवस्था पे खूब लांछन लगाया जाता है, अदालतें कुरीतियों को मिटाने के लिए हमेशा प्रतिबद्ध दिखतीं हैं। हिन्दू ग्रंथों में लिखे गए उपदेशों को तोड़-मरोड़ कर पेश करके उसे महिला-विरोधी बतलाया जाता है परन्तु ऐसा कुछ है नहीं। असल में ऐसी कुरीतियां सही मायने में जिस धर्म में हैं उसपे चर्चा होने से हमारे नेताओं को अपना वोट बैंक खतरे में दिखने लगता है, मीडिया चुप्पी साध लेती है और अदालतें केस में तारीखें बढ़ाने लग जाती हैं। जी हाँ, मैं इस्लाम कि कुरीतियों और महिलाविरोधी प्रथाओं की बात कर रहा हूँ। वैसे तो इस धर्म में कुरीतियां बहुयात संख्या में हैं मगर यहाँ पे तीन प्रथाओं का ज़िक्र करना अत्यंत आवश्यक है जिसने मुस्लिम महिलाओं का जीना हराम कर रखा है।
1. बहुविवाह(polygamy)- इस प्रथा में मुस्लिम पुरुष को एक से अधिक शादियां करने की छूट मिली हुई है जबकि औरतों को ऐसी कोई भी छूट नहीं है।
2. तलाक-ए-बिदअत(Talaq-e-bidat)- इसमें किसी महिला को तलाक देने के लिए एक सीमित समय अवधि में तीन बार तलाक बोलना पड़ता है, पुरुष इसे बिना रुके एक बार में भी बोल सकता है। इस तरह का तलाक मान्य है।
3. निकाह हलाला(Nikah Halala)- इसमें अगर महिला को अपने पिछले पति से दुबारा शादी करनी है तो पहले उसे किसी दूसरे पुरुष से शादी करनी होगी और फिर उससे तलाक लेना होगा।
कई मुस्लिम देश भी इन प्रथाओं पे प्रतिबंध लगा चुके हैं लेकिन यह भारत है, यहाँ कुरीतियां सिर्फ और सिर्फ हिन्दू धर्म में हैं बाकि सभी तो इंसानियत और शांति की शिक्षाएं देते हैं। लोग जिस तरह से इस्लाम में चल रही कुरीतियों को नजरअंदाज करके बैठे हैं उससे सबसे ज्यादा परेशानी मुस्लिम महिलाओं को उठानी पड़ रही है। मुस्लिम समाज का एकतरफा रवैया उनके लिए नासूर बन चूका है, इसका विरोध तो करतीं हैं मगर उनकी आवाज दबा दी जाती हैं। आखिर सच्चाई का गला कब तक घोंटा जा सकता है कोई ना कोई, कभी ना कभी गलत के खिलाफ मुखर होता है और तब समस्या को अनदेखा करने वाले लोगों को जागना पड़ता है और सच्चाई को समझने और जानने की कोशिश करनी ही पड़ती है।
ऐसा ही कुछ हुआ कोलकाता की एक 26-वर्षीय महिला इशरत जहाँ के साथ। उसके पति ने दुबई से उसे कॉल किया, फ़ोन पे ही उसे तीन बार तलाक कह दिया और यह बात उसने पुरे होशों-हवास में कही थी इसलिए यह मान्य हो गया। तलाक के बाद इशरत के पति और पति के रिश्तेदार उसपे घर छोड़ के जाने का दवाब बनाने लगे और उसके चार बच्चों को भी उससे अलग कर दिया। उसके माँ-बाप भी उससे दूर बिहार में रहते थे इसलिए उनसे कोई मदद नहीं मिल पाई और पुलिस ने भी बच्चों को वापिस दिलवाने में उसकी कोई मदद नहीं की।
इशरत बाकी महिलाओं की तरह समाज के डर से चुप बैठने वाली में से नहीं थी और उसने वकील वीके बीजो के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट में बहुविवाह, तलाक-ए-बिदअत और निकाह हलाला के खिलाफ याचिका दायर कर दी।
याचिका में यह कहा गया की शरीयत कानून, 1937 असंवैधानिक है क्योंकि यह आर्टिकल 14(बराबरी का अधिकार), 15(भेदभाव के विरुद्ध), 21(जीने का अधिकार) और 25(धार्मिक आस्था) का उलंघन करता है और अदालत को इसे खत्म कर देना चाहिए। चीफ जस्टिस टीएस ठाकुर, जस्टिस एम खानविलकर और डी वाय चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली बेंच ने इस याचिका पे संज्ञान लेते हुए अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय और अन्य सम्बंधित विभागों को नोटिस जारी कर इस विषय पे उनकी राय मांगी है। अदालत 6 सितम्बर को इस याचिका और इस तरह की बाकी सभी याचिकाओं पे सुनवाई करेगी।
अब देखना दिलचस्प होगा की केंद्र सरकार का क्या रुख होता है और क्या इस बार तारीख़ पे तारीख़ देने की बजाय सुप्रीम कोर्ट इस मामले पर गंभीरता से विचार करेगी , ठीक उसी तरह से जिस तरह से वह दही-हांडी की लंबाई तय करती है।
उम्मीद के मुताबिक मुस्लिम संगठनों ने इस याचिका का विरोध शुरू कर दिया है।
खैर, मेरा तो यही मानना है कि सर्वोच्च न्यायालय को तमाम विरोधों को दरकिनार करके सही और वाजिब फैसला लेना चाहिए। मुसलमानों को भी चाहिए की वह इस बदलाव का स्वागत करें क्योंकि कहीं ऐसा ना हो की इस तरह की वाहियात कुरीतियों का दंश आपके परिवार को झेलना पड़ जाए और फिर आपको इस तरह की दकियानूसी प्रथाओं से लोगों को हो रही मानसिक पीड़ा का एहसास हो। इसलिए मैं तो यही कहूँगा की जहाँ गलत हो रहा है उसे रोकें, उसके खिलाफ आवाज बुलंद करें, इससे आप काफिर नहीं करार कर दिए जायेंगे बल्कि आपको त्रस्त लोगों का समर्थन मिलेगा, आपका सम्मान बढ़ेगा क्योंकि आखिर सबको अपनी मर्जी से जीने, अपनी मर्जी से शादी करने और अपनी मर्जी से तलाक लेने का अधिकार मिलना चाहिए और ये मिल के रहेगा।