संघ के वरिष्ठ मनमोहन वैद्य जी ने ‘धार्मिक/जातिगत’ आरक्षण को ख़त्म करने और आरक्षण की समीक्षा करके एक बयान दिया हैं।
शायद अब पूरा मेनस्ट्रीम मीडिया और फेसबुक के लाल क्रांतिकारी किसी खास संगठन या पार्टी को आरक्षण/दलित विरोधी का ‘तमगा’ भी दे दे। लेकिन व्यक्तिगत तौर पर मैं उनके बयान का स्वागत करता हूँ, और उम्मीद करता हूँ इस मुद्दें पर आगे भी कुछ कदम उठाया जाये। मेरे बारे में ‘ब्राम्हणवादी या दलित विरोधी’ जैसी छवि बनाने से पहले इस लेख को पूरा पढ़े फिर अपने विचार रखे।
एक बात बताईये कि गरीब या पिछड़े सिर्फ़ SC/ST/OBC ही हैं ? क्या सामान्य वर्ग का कोई व्यक्ति सामाजिक, आर्थिक रूप से पिछड़ा नहीं हो सकता ? जाहिर सी बात हैं हो सकता हैं, और हमारे समाज में अनगिनत ऐसे लोग हैं। तो क्या इनको सामाजिक अधिकार नहीं मिलने चाहिये ? आरक्षण पर कुछ कहो तो हर बात का एक ही जवाब होता हैं, वही ‘2000 साल’ वाला। लेकिन क्या आज के दौर में आज़ादी के 70वें वर्ष में भी आरक्षण का आधार जातिगत वाकई में सही हैं ? क्या सच में एक जाति सामाजिक/आर्थिक रूप से किसी के अगड़े या पिछड़े होने का प्रमाण हो सकती हैं ? बहुत से मेरे भी मित्र हैं जो आरक्षण का लाभ लेते हैं, बिल्कुल लेंगे, आखिर उनका संवैधानिक अधिकार जो हैं। लेकिन क्या उन्हें वास्तव में आरक्षण की ज़रूरत हैं ? नहीं, बिल्कुल भी नहीं। मेरे मित्र और मेरे घर की आय लगभग समान हैं फिर यह संवैधानिक भेदभाव क्यों ? वहीं दूसरी ओर का एक सामान्य वर्ग का व्यक्ति हैं जिसकी मासिक आय 5000₹ के आस-पास हैं और उसके बच्चें को इंजिनयरिंग की पढ़ाई करनी हैं, जिसे सरकार से ना कोई मदद मिलेगी ना ही पिछड़ों को मिलने वाली राशि की तरह कुछ मिलेगा, वह व्यक्ति अपने बालक की पढ़ाई का खर्च कहाँ से उठायेगा ?
इस तरह के हमारे देश में प्रतिदिन घटित होने वाले अनगिनत किस्से हैं जिन्हें ना किसी मीडिया में जगह मिलती हैं ना ही किसी राजनीतिक दल को इसकी चिंता हैं। इस वर्ष की सिविल सेवा की टॉपर थी ‘टीना डाबी’। जिनके माता-पिता भारतीय इंजीनियरिंग सेवा में बड़े अधिकारी हैं। इनके दादाजी भी ‘वैज्ञानिक तथा अनुसंधान परिषद्’ में बड़े अधिकारी थे। इसके बाद भी इनके माता-पिता और इन्होंने स्वयं सिविल सेवा की प्रारंभिक परीक्षा को पास करने के लिये आरक्षण का सहारा लिया। क्या उन्हें वाकई उसकी ज़रूरत थी ? मुझे तो ऐसा नहीं लगता। लेकिन उन्होंने अपने संवैधानिक अधिकारों का इस्तेमाल कर कुछ गलत भी नहीं किया।
यह बताने का तात्पर्य यह हैं क़ि इन पिछड़े वर्ग में भी एक ऐसा वर्ग बन चुका हैं जो आरक्षण को एक खैरात समझ इसका पीढ़ी दर पीढ़ी गैर-ज़रूरी इस्तेमाल कर रहा हैं। दरअसल आरक्षण का लाभ ले रहे लोगों को यह कभी ना ख़त्म होने वाला अधिकार लगता हैं। आरक्षण वास्तव में एक व्यवस्था हैं जिसे समाज के उस तबके के लिये लाया गया था जो तत्कालीन समय में सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक रूप से पिछड़े थे। जिसे इसका लाभ मिलना चाहिये वो तो अभी भी मुख्यधारा से बाहर ही हैं। संविधान निर्माताओं ने भी आरक्षण को अनंतकाल तक के लिये नहीं दिया था। अब सही मायनों में आरक्षण की समीक्षा का वक़्त आ चुका हैं और इस ओर एक सकारत्मक कदम उठाने की सख़्त आवश्यकता हैं।
समाज के एक वर्ग जो सच में सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक रूप से पिछड़ा हैं चाहे वह सामान्य वर्ग का ही हो, आखिर वह भी इस लोकतांत्रिक भारत गणराज्य का हिस्सा हैं। जब हम सभी क्षेत्रों में समानता की बात करते हैं तो हमें सभी को मुख्यधारा में लाना होगा।