भारत विविधताओं का देश है, इस लिए यह अपने आप में काफी रोचक जगह है और अजुबेपन कि एक जीती जागती मिसाल है। भारत के हर हिस्से में आपको अनोखी चीजें सुनने और देखने को मिल जाएंगी। भारत जितना आश्चर्यों से भरा पड़ा है उतने ही उलझनों से भरी पड़ी है भारत की राजनीति(मुझे नहीं लगता कि कोई विदेशी हमारी राजनैतिक संरचना को एक बार में समझ पायेगा)। और अगर भारतीय राजनीति कि विस्तार से चर्चा कि जाए तो इसमें सबसे उलझा हुआ राज्य उत्तर प्रदेश ही कहलायेगा।
उत्तर प्रदेश जनसंख्या के हिसाब से भारत का सबसे बड़ा राज्य है और ये राज्य अपनी उर्वरक जमीन, बड़े क्षेत्रफल और मानव संसाधन से परिपूर्ण होने के वजह से देश का सबसे प्रगतिशील राज्य होने कि क्षमता रखता है। परन्तु आप इसे इस राज्य का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि आज ये राज्य भ्रष्टाचार, गुंडागर्दी और प्रशासनिक अपंगता का शिकार हो चूका है। अभी यूपी के सत्ता में समाजवादी पार्टी का राज है और वर्ष 2017 में यहाँ चुनाव होने वाले हैं। देश कि सबसे बड़ी पार्टी भाजपा भी यूपी में अपनी सत्ता वापसी के लिए प्रयत्नशील है और ये बहुत हद तक सम्भव भी है कि वो इसमे कामयाब भी हो जाये।
मगर बीजेपी को यह भी ज्ञात रहना चाहिए कि प्रदेश कि राजनीति में आज भाजपा का जो स्थान है ये किसी और कि नहीं बल्कि स्वयं भाजपा की गलतियों का ही परिणाम है। आज प्रधानमंत्री यूपी के विकास को जो तवज्जो दे रहे हैं और इसे भाजपा के लिए सबसे जरुरी राज्य मान रहे हैं, अगर यही बात आज से लगभग 25 साल पहले यूपी भाजपा के नेताओं को समझ में आ गयी होती तो शायद यूपी कभी भारतीय जनता पार्टी के हाथों से निकला ही नहीं होता। आइये उन कारणों को जानने का प्रयास करते जिसने भाजपा को प्रदेश कि राजनीति से बाहर कर दिया।
शुरू करते हैं 1991 से… लोकसभा में बीजेपी ने 51 सीट जीती थी और विधानसभा चुनावों में कमंडल ने मंडल को हरा के उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह(वर्तमान में राजस्थान के राज्यपाल) की सरकार बनाई, 221 सीट और 31.5% वोट के साथ। 6 दिसम्बर को वो सरकार कुर्बान कर दी गयी लेकिन कल्याण सिंह ने अपना चुनावी वादा पूरा कर दिया था, विवादित बाबरी मस्जिद नेस्तनाबूत कर दिया गया।
केंद्र में नरसिंह राव थे, यूपी में राष्ट्रपति शासन चालू रहा और अगला चुनाव 1993 में हुआ। बीजेपी को केवल 177 सीटे मिली और वो सत्ता से बाहर हो गयी। जानकार कहते हैं हिन्दू फिर से अपनी जातियों में सिकुड़ गया जबकि हकीकत ये है कि उस चुनाव में भाजपा का वोट परसेंटेज बढ़ गया था और भाजपा उत्तर प्रदेश में 33.5% के साथ विपक्ष में बैठी थी, हाँ इस चुनाव से पहले तत्कालीन शिक्षा मंत्री राजनाथ सिंह द्वारा चलाये गए शिक्षा सुधार के कार्यक्रम( 84% बच्चे फेल हुये, नकल करते पकड़े जाने पर जेल भी भेजे गए ) के चलते जनता में थोड़ा आक्रोश तो था लेकिन चूँकि भाजपा ने अपना वादा पूरा किया था इसलिए उसके वोट बढ़ते रहे।
संसद में भाजपा विवादित ढांचा विध्वंस को लोकतंत्र का काला दिन बता चुकी थी, चूँकि सत्ता का स्वाद मिल चुका था इसलिए भाजपा में भी अलग-अलग गुट बनने शुरू हो चुके थे। साथ ही लोकसभा चुनाव भी सामने थे।
1993 के बाद चुनाव हुआ 1996 में, जनता अभी भी भाजपा के साथ खड़ी थी और लोकसभा में 1991 से एक सीट ज्यादा ही मिली (52 सीट)। विधानसभा में भी 32.5% वोट मिले।
1998 लोकसभा में भी जनता ने अपना आशीर्वाद बरकरार रखा और रिकॉर्ड 58 सीट दी भाजपा को, परन्तु इन सब के बीच उत्तर प्रदेश में ‘पार्टी विथ अ डिफरेंस’ बिलकुल किसी सत्ता लोलुप पार्टी सी दिखने लगी थी। 1996 में मायावती के साथ एक गठबंधन हुआ 6-6 महीने वाला, बाद में सत्ता के इस घिनोने खेल में 94विधायक मंत्री बनाये गए।
उत्तर प्रदेश में एक कुशल शासक माने जाने वाले कल्याण सिंह और भाजपा कार्यकर्ता कुसुम राय के अनैतिक संबंधों की चर्चा पुरे प्रदेश में नुक्कड़ से लेकर भाजपा के वरिष्ठ नेताओं तक छिड़ी हुई थी, विरोधियो ने कुसुम राय को ‘सुपर सीएम’ की उपाधि दे रखी थी। उधर केंद्र में एनडीए की सरकार बन चुकी थी और सारे कोर मुद्दे राम मंदिर, धरा 370 और समान आचार संहिता, कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के तहत ठन्डे बस्ते में डाले जा चुके थे। 1999 के लोकसभा चुनावों में वोटरों ने इसकी सजा दी और यूपी से केवल 29सीट मिली।
विधानसभा चुनाव 2002 आते आते भाजपा का कैडर खुद को इग्नोर फील करने लगा था( जो काम भाजपा के सांसद और विधायक नहीं करा पाते थे वो गठबंधन राज में बसपा का बूथ लेवल कार्यकर्त्ता करवा लेता था ), उत्तर प्रदेश के क्षेत्र में कल्याण सिंह खुद अपनी पार्टी के प्रधानमंत्री को नहीं बख्शते थे, सत्ता कल्याण सिंह से होते हुए राजनाथ सिंह और भूले बिसरे रामप्रकाश गुप्त के हाथो में पहुंच चुकी थी।
आखिर में 2002 के विधानसभा चुनाव में केवल 20% वोट के साथ भाजपा का उत्तर प्रदेश का किला एक लम्बे वक़्त के लिए ढह गया।
यह थी उत्तर प्रदेश में बीजेपी की कथा, अब पार्टी ने गलतियां की या उसे जनता का समर्थन नहीं मिला इसका निर्णय आप सब पे छोड़ता हूँ। बाकी 2002 के बाद के चुनावो का कुछ भी नहीं लिखा है क्यूंकि भाजपा इसमे कहीं थी ही नहीं। 2014 में मोदी जी आये, बनारस से चुनाव लड़ा और यूपी ने बढ़-चढ़ कर समर्थन दिया। 2017 में क्या होगा ये तो भविष्य ही बताएगा, आप और हम तो केवल अनुमान ही लगा सकते हैं।