दुख तब होता है जब इस महान कहें जाने वाले राष्ट्र के नेताओं को साक्षर और शिक्षित में फर्क तक महसूस नहीं होता| गाँधी कहते थे “अक्षर ज्ञान न तो शिक्षा का अंतिम लक्ष्य है और न उसका आरंभ।” यह बात अब कोई याद नहीं रखता| सब परेशान हैं, नक़ल करने में , अमरीका के No child left behind Act 2001 की| कोई मध्यांतर में रोटी की बात करता है , कोई ज्यादा से ज्यादा नामांकन (सिर्फ नामांकन) की, कोई साइकिल की| जी नहीं मैं नकरात्मक नहीं हूँ इन चीजों की भी जरुरत है , लेकिन एक युवा देश(एक देश जहाँ अधिकाँश जनता काम करने के उम्र में हैं) में क्या हमारी जिम्मेदारी ये नहीं, कि हम योजना बनाए के साथ साथ उन्हें कार्यान्वित भी करें|
एक किस्सा याद आ रहा है, थोड़े दिन पहले मैं एक दूकान पे गया वहां मुझे एक ११ साल का बच्चा मिला , शायद कुपोषण का शिकार रहा होगा, क्योंकि अपनी उम्र से कम लग रहा था| उसके माँ बाप नहीं थे, सड़क पे घूमते घूमते एक दिन वो उस दुकान पर गया और काम मांगा, पहले दूकानदार ने ना नुकुर किया फिर उसने उसे अपने घर और दुकान पर छोटे छोटे काम करने के लिए रख लिया| वो लड़का पढ़ता भी है| मैंने दुकानदार, जो कि मेरा स्कूल का सहपाठी और दोस्त है, से पूछा क्या ये सही है , बाल मजदूरी नहीं है ये! उसने बोला अगर मैंने इसे नहीं रखा तो ये रोड पे सोयेगा| क्या हमने प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य करने के लिए सारे जरुरी कदम उठाये हैं, कानून बनाना आसान है, उन्हें व्यावहारिक कौन बनाएगा? खैर मेरे पास तब उस प्रश्न का उत्तर नहीं था, आज भी नहीं है, वो दोस्त शायद ज्यादा व्यावहारिक था , मैं कुछ ज्यादा ही नीतियाँ पढ़ चुका हूँ जिनकी कोई उपयोगिता नहीं थी| किसी ने सही कहा है ‘भूखे पेट भजन नहीं होता’| उस बच्चे की शायद यही किस्मत थी| हम अभी भी तैयार नहीं हैं , शिक्षा के मौलिक अधिकार अभी भी कागज पे ही है शायद| अंतरद्वंद की उधेड़बुन में लगा हुआ था|
बहुतों को शिक्षा मिलती ही नहीं है , कुछ को मिलती है लेकिन उसका स्तर नहीं है , और कुछ खुशनसीब जो अपनी प्रतिभा या जुगाड़ लगा के देश के बेहतरीन शिक्षा संस्थानों में पहुँच भी जाते हैं तों उन्हें जो मिलता है उसकी उपयोगिता पे प्रश्न चिन्ह बना हुआ है ? इसके अलावा हम सब परिवार में सीखी संस्कारों के नाम पर दी हुई गुण जिनमे बहुत अच्छे गुण के साथ कुछ कुरीतियाँ भी शामिल है , जिन्हें हम संस्कार ही समझते हैं और जो जिंदगी भर हमारी सोच पर हावी रहते हैं|
अगर आप युवा है, अगर आप नयी विचारधारा के हैं तो फिर अस्पृश्यता कैसी, इंसानों से भाईचारा ठीक है , लेकिन इस देश की तकदीर समझने वाली राजनीति से क्यों मुंह मोडना, ये देश आपका है , ये लोग आपके हैं , युग युगांतर से युवाओं ने ही परिवर्तन लाया है फिर आप किसी और की तरफ देख कर आसरा क्यों लगाते हैं, भारत को सिर्फ अभियंताओं, चिकित्सकों और नौकरशाहों की ही नहीं बल्कि प्रतिभाशाली और ईमानदार राजनेताओं की भी जरुरत है| देश के महत्वपूर्ण निर्णय लेने की जिम्मेदारी सिर्फ कुछ परिवारों वालों को ही क्यों|
हम सब कुंठित है, सब दुखी हैं, पर आशा नहीं खोयी हमने अभी तक| हमारी हालत भी उन हनुमान की तरह है जिन्हें जरुरत है कोई आ के याद दिलाये कि इन समस्याओं का निवारण भी हम युवायों से ही आएगा| जहाँ इतनी निराशाएं हैं वहीँ कई लोग लगे हुएं हैं समाज को बेहतर बनाने में|
स्थिति बेहद गंभीर है, चिंता जनक है पर युवाओं में आशा भी है|
आज फिर सूरज की तलाश में भटक सा गया था वो
अनभिज्ञ का अहंकार एक काले छिद्र सा तो है यूँ तो
आकाशगंगाओं की रौशनी कम पड़ जाती है जिस अनंत घनत्व में
जाने कितने ‘संदीप’ लगे थे फिर भी उस स्याह में उजाला लाने में|
कभी ना कभी, एक आत्ममंथन करना है, खुद को, समाज को, राष्ट्र को!
Image Courtesy: Google
दुख तब होता है जब इस महान कहें जाने वाले राष्ट्र के नेताओं को साक्षर और शिक्षित में फर्क तक महसूस नहीं होता| गाँधी कहते थे “अक्षर ज्ञान न तो शिक्षा का अंतिम लक्ष्य है और न उसका आरंभ।” यह बात अब कोई याद नहीं रखता| सब परेशान हैं, नक़ल करने में , अमरीका के No child left behind Act 2001 की| कोई मध्यांतर में रोटी की बात करता है , कोई ज्यादा से ज्यादा नामांकन (सिर्फ नामांकन) की, कोई साइकिल की| जी नहीं मैं नकरात्मक नहीं हूँ इन चीजों की भी जरुरत है , लेकिन एक युवा देश(एक देश जहाँ अधिकाँश जनता काम करने के उम्र में हैं) में क्या हमारी जिम्मेदारी ये नहीं, कि हम योजना बनाए के साथ साथ उन्हें कार्यान्वित भी करें|
एक किस्सा याद आ रहा है, थोड़े दिन पहले मैं एक दूकान पे गया वहां मुझे एक ११ साल का बच्चा मिला , शायद कुपोषण का शिकार रहा होगा, क्योंकि अपनी उम्र से कम लग रहा था| उसके माँ बाप नहीं थे, सड़क पे घूमते घूमते एक दिन वो उस दुकान पर गया और काम मांगा, पहले दूकानदार ने ना नुकुर किया फिर उसने उसे अपने घर और दुकान पर छोटे छोटे काम करने के लिए रख लिया| वो लड़का पढ़ता भी है| मैंने दुकानदार, जो कि मेरा स्कूल का सहपाठी और दोस्त है, से पूछा क्या ये सही है , बाल मजदूरी नहीं है ये! उसने बोला अगर मैंने इसे नहीं रखा तो ये रोड पे सोयेगा| क्या हमने प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य करने के लिए सारे जरुरी कदम उठाये हैं, कानून बनाना आसान है, उन्हें व्यावहारिक कौन बनाएगा? खैर मेरे पास तब उस प्रश्न का उत्तर नहीं था, आज भी नहीं है, वो दोस्त शायद ज्यादा व्यावहारिक था , मैं कुछ ज्यादा ही नीतियाँ पढ़ चुका हूँ जिनकी कोई उपयोगिता नहीं थी| किसी ने सही कहा है ‘भूखे पेट भजन नहीं होता’| उस बच्चे की शायद यही किस्मत थी| हम अभी भी तैयार नहीं हैं , शिक्षा के मौलिक अधिकार अभी भी कागज पे ही है शायद| अंतरद्वंद की उधेड़बुन में लगा हुआ था|
बहुतों को शिक्षा मिलती ही नहीं है , कुछ को मिलती है लेकिन उसका स्तर नहीं है , और कुछ खुशनसीब जो अपनी प्रतिभा या जुगाड़ लगा के देश के बेहतरीन शिक्षा संस्थानों में पहुँच भी जाते हैं तों उन्हें जो मिलता है उसकी उपयोगिता पे प्रश्न चिन्ह बना हुआ है ? इसके अलावा हम सब परिवार में सीखी संस्कारों के नाम पर दी हुई गुण जिनमे बहुत अच्छे गुण के साथ कुछ कुरीतियाँ भी शामिल है , जिन्हें हम संस्कार ही समझते हैं और जो जिंदगी भर हमारी सोच पर हावी रहते हैं|
अगर आप युवा है, अगर आप नयी विचारधारा के हैं तो फिर अस्पृश्यता कैसी, इंसानों से भाईचारा ठीक है , लेकिन इस देश की तकदीर समझने वाली राजनीति से क्यों मुंह मोडना, ये देश आपका है , ये लोग आपके हैं , युग युगांतर से युवाओं ने ही परिवर्तन लाया है फिर आप किसी और की तरफ देख कर आसरा क्यों लगाते हैं, भारत को सिर्फ अभियंताओं, चिकित्सकों और नौकरशाहों की ही नहीं बल्कि प्रतिभाशाली और ईमानदार राजनेताओं की भी जरुरत है| देश के महत्वपूर्ण निर्णय लेने की जिम्मेदारी सिर्फ कुछ परिवारों वालों को ही क्यों|
हम सब कुंठित है, सब दुखी हैं, पर आशा नहीं खोयी हमने अभी तक| हमारी हालत भी उन हनुमान की तरह है जिन्हें जरुरत है कोई आ के याद दिलाये कि इन समस्याओं का निवारण भी हम युवायों से ही आएगा| जहाँ इतनी निराशाएं हैं वहीँ कई लोग लगे हुएं हैं समाज को बेहतर बनाने में|
स्थिति बेहद गंभीर है, चिंता जनक है पर युवाओं में आशा भी है|
आज फिर सूरज की तलाश में भटक सा गया था वो
अनभिज्ञ का अहंकार एक काले छिद्र सा तो है यूँ तो
आकाशगंगाओं की रौशनी कम पड़ जाती है जिस अनंत घनत्व में
जाने कितने ‘संदीप’ लगे थे फिर भी उस स्याह में उजाला लाने में|
कभी ना कभी, एक आत्ममंथन करना है, खुद को, समाज को, राष्ट्र को!
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This is really very nice blog about Indian Politics.
Abhinav Mishra