मोदी की खादी पर इतना बवाल मचा, नेताजी पर क्यों नहीं?

नेताजी। एक ऐसा शब्द जो मात्र शब्द नहीं हैं, पूरा व्यक्तित्व हैं। यह शब्द सुनते ही दिमाग में सबसे पहले उस महापुरुष की छवि बनती हैं जिसका देश की आज़ादी में अभूतपूर्व योगदान रहा हैं। बिना खड़ग-ढाल वाले ‘बापू’ और ‘चाचा’ की बदौलत आज़ादी मिलने की कहानियों वाली पाठ्य-पुस्तकों के बीच आज़ादी की जंग लड़ने वाले इस कर्मठ योद्धा को धुंधला कर दिया गया। ‘नेताजी’ सुभाषचंद्र बोस। एक ऐसा नाम जिसे सुनकर अंग्रेज काँप जाते थे। उस काल में विश्व के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति में से एक ‘हिटलर’ भी उनको सलाम करता था। देश की आज़ादी के लिये उन्होंने ‘आज़ाद हिन्द सेना’ का नेतृत्व किया था। ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आज़ादी दूंगा’, उनके इस एक आह्वान ने पुरे देश में एक क्रांति की लहार ला दी थी। बूढ़ी माताएं अपने बच्चे उन्हें सौंप रही थी, औरते-विधवाएं उन्हें अपने गहने दे रही थी। ऐसा अटल विश्वास और ऐसा प्रभावी व्यक्तिव था ‘नेताजी’ का। ऐसे थे ‘नेता जी’।

अब आज आते हैं 2017 में। ‘नेताजी’ का तो व्यक्तिव ही बदल दिया गया हैं। बलात्कार करने पर ‘लड़कों से गलती हो जाती हैं’, कहने वाले व्यक्ति को नेताजी कहा जा रहा हैं। ‘नेता जी’ शब्द की गरिमा को तार-तार कर दिया हैं इन तथाकथित समाजवादियों ने। मुलायम सिंह यादव जिन्होंने अपने निजी और खुद के परिवार के स्वार्थ के लिये पूरी यूपी को तबाह कर दिया वो खुद को ‘नेताजी’ कहलाना पसंद करते हैं। खुद ही खुद का नामकरण कर दिया उन्होंने वो भी ऐसे व्यक्ति का उपनाम जिसके सेना में महिला-पुरुष का कोई भेद नहीं, जिसने देश के लिये परिवार को त्याग दिया, उस ‘नेताजी’ का उपनाम लेकर परिवारवाद की राजनीति खेलने लगे।

कुछ हफ़्ते ही पहले की बात हैं, खादी के कैलेण्डर में प्रधानमंत्री मोदी जी की तस्वीर छपी थी। पूरा विपक्ष, जनता के एक समूह के साथ-साथ मीडिया गिरोह पूरी तरह सरकार पर टूट पड़े थे। सिर्फ एक फ़ोटो छापने पर। जबकि चरखा तो पुरे देश का हैं, किसी एक व्यक्ति या संगठन का नहीं। कल्पना कीजिये क़ि प्रधानमंत्री मोदी को ‘बापू’ या ‘चाचा’ के उपनाम से बुलाना शुरू किया जाये, तो क्या होगा ? क्या ये विपक्ष, मीडिया समूह और गांधी पर एकाधिकार समझने वाले चुप रहेंगे ? नहीं, बिल्कुल भी नहीं। तो फिर जब देश की स्वाधीनता के लिये लड़ने वाले युवाओं के प्रेरणास्त्रोत ‘नेताजी सुबाषचंद्र बोस’ का उपनाम एक ऐसे व्यक्ति को दिया गया ; जिसकी पूरी राजनीति परिवारवाद और तुष्टिकरण से चलती हैं, सब चुप क्यों रहे ? कारण यह हैं क़ि असली नेताजी कांग्रेसी नहीं थे। चाचा और नेता जी की पटती नहीं थी और सबसे बड़ी बात ‘नेताजी’ किसी के चाटुकार और पैरोकार नहीं थे।

अब देश के और खासकर उत्तरप्रदेश की जनता को फिर से सोचना होगा क़ि ‘नेताजी’ का शौर्य क्या था और उनका व्यक्तित्व कैसा था। मीडिया और फर्ज़ी समाजवादियों द्वारा बनाये किसी व्यक्ति की तुलना नेताजी से ना हो।

अब नेतृत्व करने वाले ‘नेताजी’ और नेतागीरी करने वाले ‘नेताजी’ में फर्क़ समझना होगा। जिस तरह हम बापू, चाचा और लौह-पुरुष उपनाम से जिन महापुरषों को को जानते हैं, लेकिन आने वाले समय में कहीं ऐसा ना हो क़ि अगली पीढ़ी ‘नेता जी’ के नाम से बंगाल वाले को भुलकर उत्तरप्रदेश वाले को याद करने लग जाये।

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