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तारीखों की घोषणा चुकी है। मंच तैयार है। राजनीतिक रूप से भारत के सबसे महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव, 11 फरवरी से 8 मार्च के बीच सात चरणों में होंगे।
उत्तर प्रदेश चुनाव दरअसल चार राजनैतिक पार्टियों सपा , बसपा ,कांग्रेस और भाजपा के अस्तित्व की लड़ाई है
सबसे पहले हम बात करते हैं कांग्रेस की। । । । । उत्तर प्रदेश 2017 चुनावों की सबसे संगठित और सबसे ज्यादा तैयार पार्टी है जिसके कैंडिडेट लिस्ट को लेकर कोई विवाद नहीं है , चुनाव के प्रचार प्रसार की देखरेख चुनावों के स्वघोषित चाणक्य प्रशांत किशोर कर रहे हैं , चुनावों की तैयारी एक पुराने कांग्रेसी राज बब्बर के हाथ में है तो शीर्ष पद के लिए तीन बार मुख्यमंत्री रह चुकी शीला जी का नाम प्रस्तावित है
हालाँकि ये देखने वाली बात है की आखिर “कांग्रेस को वोट देगा कौन ? “जी हाँ !! पार्टी को अच्छे से पता है की उसका मत दाताओं से कोई जुड़ाव नहीं है, इसीलिए वो बाकी पार्टियों के मुकाबले ज्यादा शांत है। कांग्रेस को नेहरु-गाँधी परिवार के पारंपरिक गढ़ माने जाने वाले क्षेत्रों में कुछ सीटों की उम्मीद है। लेकिन बाकी इलाकों में उनसे कोई भी उम्मीद नहीं के बराबर है। ज़मीनी सच्चाई ये है की किसान यात्रा करा लें या खाट पे चर्चा , कांग्रेस को बड़ी हार से भगवान भी नहीं बचा सकते। अगर कोई चुनाव पूर्व गठबंधन भी बनता है तो भी कांग्रेस को जूनियर पार्टनर के रूप में काम करना होगा।
फिर, नाम आता है मायावती जी की बसपा का – भारत में दलित अधिकारों के स्वयंभू चैंपियन और कांशीराम के उत्तराधिकारिणी के लिए ये चुनाव आर या पार का चुनाव है , क्योंकि 2012 में इन्हें समाजवादी पार्टी के हाथों बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा। क्योंकि foreign return अखिलेश के सामने मायावती की देहाती नीतियां मतदाताओं को आकर्षित नहीं कर पायी , और ठीक दो साल के बाद नमो के सुनामी में उत्तर प्रदेश भगवामय हो गया और मायावती का सूपड़ा साफ़ हो गया। अगर 2017 में बसपा ने अच्छा रिजल्ट नहीं दिया तो बसपा बंगाल के कम्युनिस्टों की तरह अप्रासंगिक हो जायेगी।
हालाँकि की ये अप्रमाणित है परन्तु मायावती पर यह आरोप लगता रहा है की उन्होंने दौलत का एक विशाल जखीरा इकट्ठा कर रखा था जिसमें से ज़्यादातर रकम चुनाव खर्चे के लिए उपयोग की जाने वाली थी, खैर उमसे से ज्यादातर नगदी अब नमो के #नोटबंदी के भेंट चढ़ चुकी होगी। नोटबंदी से मायावती के बसपा पर गम्भीर असर पड़ा है।
बसपा पहले ही अपने वरिष्ठ नेताओं के पलायन से जूझ रही था उसी बीच में नोट बंदी ने वज्रपात कर दिया। लेकिन सपा की अंदरूनी लड़ाई बसपा को तिनके का सहारा सा दिख रहा है। मायावती को उम्मीद है कि सपा की अंदरूनी कलह की वजह से मुसलमानों की एक बड़ी संख्या में बसपा के प्रति आकर्षित होगा। और मायावती भी उनके स्वागत को तैयार बैठी हैं , इस बात की पुष्टि बसपा के उम्मीदवारों की सूची देखने से होती है की किस तरह उन्होंने पिछली बार से एक दर्जन ज्यादा और अपने कोर वोटर दलितों से दस ज्यादा कुल 92 मुस्लिम उम्मीदवारों पर दांव लगाया है।
अब बात करते हैं मुलायम / अखिलेश के नेतृत्व वाले समाजवादी पार्टी की ,जिसका नाम, चिन्ह, नेतृत्व और समाजवादी विरासत सब चुनाव आयोग के दया पर निर्भर है। सपा के राष्ट्रीय अधिवेशन में अखिलेश ने खुद को सपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष घोषित करते हुए मुलायम के सबसे विश्वासी सिपहसलार अमर सिंह को सार्वजनिक तौर पर अपमानित करते हुए निष्कासित कर दिया। जबकि दूसरी तरफ मुलायम ने इस अधिवेशन को पहले ही अवैध और असंवैधानिक बता दिया। अब ये किसी को नहीं पता की कौन पार्टी में है कौन नहीं ? कार्यकर्ता उलझन में है और चुनावी तैयारी ठप्प है। लेकिन सपा के मुश्किलों का यहीं अंत नहीं होता है , उनकी सबसे बड़ी समस्या सरकार के खिलाफ विशाल सत्ता विरोधी लहर है। उत्तर प्रदेश को foreign return बबुआ अखिलेश यादव से बड़ी उम्मीदें थी, लेकिन उत्तर प्रदेश का वही हाल रहा, जैसा मुलायम के कार्यकाल में था। कानून-व्यवस्था तो सबसे बड़ी समस्या रही ही, रोजगार भी युवाओं के लिए एक बड़ी समस्या बनी हुई है, लचर स्वास्थ्य और स्वच्छता सुविधायें , नागरिक सुविधाओं और बुरे बुनियादी सुविधाओं की कमी भी महत्वपूर्ण मुद्दे हैं।
सपा के कार्यकाल में कई दंगे भी हुए , जिसमें मुज़फ्फरनगर के दंगे मुख्य हैं, जिस कारण सपा के दूसरे सबसे बड़े वोटबैंक मुस्लिम नाराज़ और भ्रमित हैं। वे अगर मुज़फ्फरनगर दंगों के बाद हुए बर्ताव से नाराज़ हैं तो सपा के अंदरूनी कलह से भ्रमित भी। पिछली बार की तरह अगर इस बार मुस्लिमों ने सपा का साथ नहीं दिया तो सत्ता में आना सपा के लिए असंभव है और बिना मुस्लिम वोट के सपा का कोई भविष्य नहीं है
अब बात करते हैं भाजपा की :- देश की सबसे ताकतवर राजनीतिक शक्ति भाजपा ने 2014 में उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से 71 में जीत दर्ज की थी और भाजपा की 2017 के चुनावों को जीतने की सभी परिस्थितियाँ आदर्श है।
भाजपा को तभी फायदा होता है जब उसके विरोधी एक जुट नहीं होते हैं , एनसीपी और कांग्रेस महाराष्ट्र में एकजुट नहीं हुए , भाजपा जीत गयी , कांग्रेस और JMM, झारखण्ड में एकजुट नहीं हुए ,भाजपा जीत गयी , INDL और कांग्रेस हरियाणा में एकजुट नहीं हुए , भाजपा जीत गयी , कांग्रेस और AIUDF , असम में एकजुट नहीं हुए , भाजपा जीत गयी। कांग्रेस और NC या फिर कांग्रेस और पीडीपी J & K में एकजुट नहीं हुए, भाजपा राज्य में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। लालू और नितीश बिहार में एकजुट हो गए , भाजपा हार गयी।
इस बार कांग्रेस , सपा और RLD ने एकजुटता दिखाने की कोशिश की पर बात नहीं बन सकी तो ताज़ा हाल ये है की अब बीजेपी Vs सपा Vs बसपा Vs RLD Vs कांग्रेस के बीच मुकाबला होना है , और आप अच्छी तरह से जानते हैं की किसे फायदा होगा ।
नोटबंदी दूसरा सबसे महत्वपूर्ण कारण है कि भाजपा उत्तर प्रदेश २०१७ के चुनावों को जीतने के लिए पूरी तरह तैयार दिखता है। । नकदी उप्र के राजनीति में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। बाहुबलियों से लेकर प्रचारकों तक , दर्शकों से ले कर आयोजकों तक , ग्रामीण मतदाताओं से ले कर पुलिस तक , स्थानीय मीडिया से ले कर मतदान अधिकारियों तक , नकदी सिस्टम के कीचड को साफ़ करती है। पर नोट बंदी ने क्षेत्रीय दलों के लिए एक अभूतपूर्व परेशानी पैदा कर दी है। अब हालात ये हैं की वोट पाने के लिए इन पार्टियों को अपने मतदाताओं की वफ़ादारी पर निर्भर रहना पड़ सकता है , लेकिन ये एक हास्यास्पद स्थिति है।
नोट बंदी ने एक ईमानदार नेता के रूप में मोदी की साख को काफी मजबूत किया है। एक जोखिम भरा निर्णय होने के बावजूद , नोट बंदी आम जनता के बीच एक बड़ा हिट हुआ।
नोट बंदी के इतर सर्जिकल स्ट्राइक ने मोदी को एक विश्वसनीय और मजबूत नेता के रूप में पेश किया है, एक ऐसा नेता जो बोलता है, वो कर के दिखाता है , अब चाहे भाजपा इसे भुनाए न भुनाए लेकिन सर्जिकल स्ट्राइक की गूँज उप्र २०१७ के चुनावों में सुनाई देती रहेगी। भारत की बढ़ता वैश्विक कद, मोदी के सुपर प्रधानमंत्री की छवि और सुरेश प्रभु, नितिन गडकरी, सुषमा स्वराज और पीयूष गोयल जैसे मंत्रियों द्वारा किए गए सराहनीय कार्य, शहरी मतदाताओं को लुभाने के लिए प्रमुख कारक होगी।
सिर्फ एक ही मुद्दा है जो भाजपा के लगातार समस्या बना हुआ है एक विश्वसनीय मुख्यमंत्री चेहरे की कमी । भाजपा क इस समस्या का समाधान खोजने की जरुरत है, और राज्य इकाइयों को प्रशिक्षित कर राज्य स्तर पर नेताओं को विकसित करने की जरूरत है।
हालांकि, इस समस्या के मुकाबले अन्य दलों के ऊपर उल्लिखित कमियाँ और प्रधानमंत्री के सकारात्मक छवि से भाजपा का पलड़ा भारी दिखता है