नोटबंदी के बाद एक पारिवारिक कार्यक्रम में शामिल होने मैं राजधानी रायपुर से 200 किमी दूर सुदूर एक ग्राम ‘बेलगहना’ गया. उस गाँव में एक बैंक और एक एटीएम हैं.
गाँव में कुछ दुकानों पर जाकर मैंने नोटबंदी पर दुकानदारों और वहाँ खड़े कुछ ग्रामीणों से उनकी राय जाननी चाही. एक पान दुकान वाले ने कहा – “नोटबंदी से परेशानी हो रही हैं, व्यापार भी ठंडा हैं लेकिन कोई बात नहीं हम थोड़े दिन परेशानी झेल सकते हैं, ज़रूर कुछ अच्छा होगा.” वही पास खड़े एक व्यक्ति ने कहा – “इस नोटबंदी से ज्यादा दिक्कत तो बड़े लोगो को ही होगी, हमारे पास तो 1000-500 के ज्यादा नोट थे भी नहीं. ऐसी नोटबंदी प्रत्येक 5-10 वर्ष में होनी चाहिए.” एक महिला ने बताया क़ि अभी धान कटाई का समय हैं, घर में पैसे नहीं हैं, बनिहारों (धान काटने में मदद करने वाले) को भुगतान करना हैं, बैंक में लंबी कतारें लगी हुई हैं, अपने ही पैसे निकालने में थोड़ी परेशानी हो रही हैं.
वास्तविकता देखी जाए तो विमुद्रीकरण से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को एक झटका जरूर लगा है. उनकी बिक्री 70 प्रतिशत तक घट चुकी है. फल और सब्जी के किसानों को उनका मूल्य नहीं मिल पा रहा हैं.
किसानों के खाते जिला सहकारी बैंक में हैं और वहां उनके धान के भी पैसे जमा हैं. नोट बंदी के बाद नयी करेंसी के संकट ने उन किसानो के उन सपनो को प्रभावित किया है, जिन्होंने धान की आय से कई चीजें जैसे वाहन कपड़े या अन्य सामान खरीदना चाहते थे. बहुत से किसान ऐसे हैं जिन्हें चेक और एटीएम ऑपरेट करना नही आता वो बहुत परेशान हैं. उसकी एक और बड़ी वजह शिक्षा की कमी, ये सभी डिजिटल दुनिया से कोसों दूर हैं.
इस विकासशील देश में जहाँ एक बड़ी संख्या रोज़ पेट की भूख मिटाने जद्दोजहद कर रही है, वहां उसे डिजिटल युग की ओर जाने में काफी वक्त लग सकता है.
गाँव में आज भी 99 फीसदी लेनदेन नगदी ही होती है. ऐसे समय इन अशिक्षितों को गुमराह कर उनकी मेहनत की रकम को हड़पने वाले भी सक्रीय हो गए हैं, उनके बचाव के लिए भी सरकार को नीति तैयार करने की आवश्यकता है.
इस गाँव में बैंक तो रोज खुल रहे हैं, लेकिन एटीएम अभी भी बंद हैं. गाँव में ही लोगो से बातचीत के दौरान उनकी परेशानी और उनके विश्वास को देखते हुए समझा जा सकता हैं क़ि नोटबंदी का विरोध करने वाला हर एक व्यक्ति ब्लैकमनी रखने वाला नहीं हैं. अगर हम यह सोचे क़ि प्रत्येक व्यक्ति आँख मूँद कर नोटबंदी का समर्थन करे या किसी भी परेशानी को सामने ना लाये तो यह ‘अंधभक्ति’ होगी. देखा जाए तो छोटे छोटे चाय वाले से लेकर गाड़ियों के पंचर बनाने वाले और खेतों में छोटी मजदूरी करने वाले इस फैसले से थोड़े परेशान दिख रहे हैं, और उनकी परेशानी ब्लैकमनी नहीं बल्कि नोट को बदलने और पैसों को निकलने में हो रही कठिनाई से हैं. एक सामान्य व्यक्ति इस फैसले को भविष्य के लिए ज़रूर सही कह रहा हैं किन्तु वर्तमान में हो रही परेशानी उसके लिए कष्टपूर्ण हैं.
हजारों किमी दूर सत्ता के केंद्र महानगर दिल्ली में बैठकर जब कोई फैसला लिया जाता हैं तो उसका अनुकूल/प्रतिकूल प्रभाव ऐसे ही छोटे-छोटे गाँव में सकारत्मक या नकारात्मक रूप में पड़ता हैं. फ़िलहाल सरकार को बड़े शहरों के साथ-साथ ग्रामीण इलाकों में अत्यधिक ध्यान देने की जरुरत हैं. इन ग्रामीणों के पास ना ही काला धन हैं ना ही ये लोग भ्रष्टाचारी हैं.
एक घटना का ज़िक्र मैंने सुना क़ि, ‘एक परिवार जिसकी आर्थिक स्थिति अत्यंत नाजुक हैं, पिता शराबी और जुआंरी हैं. माँ-बेटा मिलकर काम कर घर-पढ़ाई का खर्चा चला रहे हैं, नोटबंदी के बाद परिवार में केवल पिता के नाम पर बैंक खाता होने पर उस खाते में पैसे जमा कराये गए, और उस व्यक्ति ने पुरे पैसे शराब और जुएं में उड़ा दिए. यह सही हैं क़ि आप ऐसे घरेलू मामलों में सरकार को दोष नहीं दे सकते हैं लेकिन ग्रामीणों में कुछ ऐसी महिलाएं भी होती हैं जिनके पति शराबी या जुआंरी होते हैं, ऐसी महिलाएं अपनी मेहनत से लोगों के घरों में जाकर काम कर अपना घर चलाती हैं. ऐसे अधिकांश घरों में बैंक खाता पुरषों के नाम पर होता हैं, जिसमें पैसे जमा करने से महिलायें घबरा रही हैं, उन्हें डर हैं क़ि कही उनकी जमा-पूँजी जुएं और शराब में ना चले जाए. ऐसे में ग्रामीण क्षेत्रों में सरकार को महिलाओं के लिए ग्रामीण बैंकों के साथ-साथ गाँव के आंगनबाड़ी केंद्रों में सूचना केंद्र के साथ-साथ नोट बदलने की भी सुविधा देनी चाहिए.
एक कट्टर मोदीभक्त हो या कट्टर विरोधी, परेशानी सभी को हो रही हैं, किंतु लोग भविष्य को सोचकर इसे एक सही कदम मान रहे हैं. बैंकों-एटीएम में लगी कतारों पर जब मैंने लोगो से बातचीत की तो सभी का यही कहना था क़ि ” तकलीफ़ ज़रूर हैं, लेकिन हम सरकार के इस फैसले से खुश हैं.” सच यह भी हैं क़ि लोग देश में बदलाव के लिए इसे एक सकारात्मक कदम मान रहे हैं.
ये बात भी सही हैं क़ि भाजपा के कई नेता, सरकार के कई लोग और ‘राष्ट्रवादी’ संगठन के कुछ लोग इस फैसले से घबराए हुए हैं. क्योंकि भ्रष्टाचार अकेले कांग्रेस की फसल नहीं हैं. अब आने वाले समय में लिखा जाने वाला इतिहास तय करेगा क़ि इस फैसले से किसे कितना फायदा और नुकसान हुआ. लेकिन एक आम भारतीय नागरिक होने के नाते प्रधानमंत्री के ऐसे फैसले लेने की इच्छाशक्ति की सराहना तो करनी चाहिए.