अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर देशद्रोह की दूकान खोलना कितना जायज़ है?

2016 anti national nationals JNU protests videos अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

मानवीय गरिमा को सुनिश्चित करने के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को ज़रूरी माना गया हैं. नागरिकों के नैसर्गिक अधिकारों के रूप में उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं को संरक्षित करना, ताकि मानव के व्यक्तित्व के सम्पूर्ण विकास हो सके और उनके हितों की रक्षा हो सके, इसके लिए भारत सहित विश्व के अनेक देशों में संवैधानिक स्तर पर व्यक्तियों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिली हुई हैं. इस तरह के अधिकार को लोकतंत्र की जीवंतता के लिए ज़रूरी माना गया हैं, क्योंकि लोकतंत्र में व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं का होना आवश्यक हैं.

आज न सिर्फ भारत में , बल्कि पूरे विश्व में “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” की ढाल रखकर अप्रिय स्थितियां पैदा की जा रही हैं. सोशल मीडिया के आने के बाद से तो इसके दुरूपयोग की बाढ़ सी आ गई हैं, अभिव्यक्ति की आज़ादी का आड़ लेकर कभी दूसरे धर्मों का अपमान किया जाता हैं, मज़ाक उड़ाया जाता हैं.
कभी चित्रों के माध्यम से, तो कभी आपत्तिजनक भाषा एवं बयानों से देश के माहौल को बिगाड़ने की कोशिश की जाती हैं, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर पेंटर मकबूल फिदा हुसैन हिंदू देवियों की नग्र पेंटिग बनाकर हिंदू समाज की भावनाओं को आहत करते हैं, तो कहीं बीफ फेस्टीवल यानी गौमांस खाए जाने जैसी घोषणाएं इसी आजादी के नाम पर की जाती हैं.
गौवंश को हिंदू धर्म में आराध्य समझा जाता है, यदि गौमांस खाने वालों द्वारा यह कहा जाए कि वे गौवंश का मांस खाने संबंधी प्रदर्शनी आयोजित करेंगे तो इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो हरगिज नहीं कहा जा सकता, बल्कि इसे हिंदू समाज के उस बड़े वर्ग को भड़काने तथा उनकी भावनाओं को आहत करने का कार्यक्रम जरूर कहा जा सकता है जो गौवंश को अपनी आस्था का केंद्र मानते हैं.
इस तथाकथित आज़ादी के नाम पर हमने जे.एन.यू. और जाधवपुर विश्वविद्यालय में देखा क़ि किस तरह वामपंथियो द्वारा देश विरोधी नारे लगाये जा रहे थे. देश की आर्मी पर लांछन लगाया गया. आतंकवादी अफ़ज़ल गुरु और मकबूल भट्ट को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा फाँसी देने पर वामपंथी विद्यार्थीयों ने अफ़ज़ल और मक़बूल को “शहीद” और भारतीय न्यायलय को “कातिल” कहा. सरर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई सज़ा की अवमानना करते हुए इनलोगो ने आतंकियों के समर्थन में कार्यक्रम रखा, जिसमें “भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशाल्लाह – इंशाल्लाह”, “भारत की बर्बादी तक जंग चलेगी”, “इंडियन आर्मी मुर्दाबाद” जैसे नारे लगे, जो कहीं से भी भारत की एकता और अखंडता पर सकारात्मक प्रभाव नहीं डालते.
“अप्रैल 2010” में छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में नक्सलियों ने 76 CRPF के जवानों को मार डाला था तो पूरा देश स्तब्ध था, लेकिन दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर नक्सलियों के समर्थन में वामपंथी विद्यार्थियों और शिक्षकों द्वारा पटाखें फोड़े गए, जश्न मनाया गया. राजनेता द्वारा भारत माता को “डायन” कहा गया.

और इनके द्वारा इन दुष्कृत्यों को बड़ी बेशर्मी के साथ ‘मुक्त अभिव्यक्ति’ की संज्ञा दी जाती हैं. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को आवश्यक माना तो गया हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं होना चाहिये की हम अनियंत्रित या अमर्यादित होकर मनमाना व्यवहार करने लगे. हमें यह समझना चाहिए की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की एक सीमा होती हैं, इसका उपयोग करते समय एक लक्ष्मण-रेखा का निर्धारण स्वयं कर लेना चाहिए. स्वतंत्रता के आधार पर किसी धर्म, समाज, व्यक्ति या संगठन का निरादर करना या धर्म और ईश्वर की आड़ लेकर आतंक फैलाना, हत्याएं करना कहीं से भी जायज़ नहीं हैं.

अभिव्यक्ति की आज़ादी को परिभाषित करना बहुत ही मुश्किल हैं. हर इंसान अपनी बुद्धि का अपने हिसाब से उपयोग करते हुए इसकी सीमा तय करता हैं, परन्तु इसकी अधिकता कभी-कभी नुक़सानदेह साबित होती हैं.
मानव सभ्यता में में शुरू से ही विचारों का आदान प्रदान किया जा रहा हैं. विचारों के आदान प्रदान से मनुष्य का वैयक्तिक विकास होता हैं. वैसे, शायद ही कभी सभ्यता के इतिहास में अभिव्यक्ति को पूर्ण स्वतंत्रता दी गयी. और वर्त्तमान में भी अभिव्यक्त्ति पर पूर्ण रूप से स्वतंत्रता विश्व में कही भी नहीं हैं. हमारें संविधान में भी अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता तो दी गयी हैं, लेकिन कुछ हिदायतों के सथ. संविधान के मुताबिक आर्टिकल 19(1)(क) में प्रत्येक नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार तो प्रदान किया हैं, लेकिन दुरुपयोग को ध्यान में रखते हुए आर्टिकल 19(2) में उन शर्तों का उल्लेख हैं जिससे अमर्यादित होने पर रोक लगाई जा सके.
भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता, राज्य की सुरक्षा, लोक व्यवस्था, न्यायलय की अवमानना, मानहानि या अपराध के लिए प्रोत्साहन देने वाले शब्दों पर प्रतिबन्ध के लिए नियम बनाये जा सकते हैं.

यदि कोई व्यक्ति अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर सामाजिक मतों/विश्वासों के विरूद्ध होता हैं , जिसका सामाजिक प्रभाव नकारत्मक हो तो उसपर तत्काल प्रभाव से रोक लगनी चाहिए.

बुद्ध, महावीर, विवेकानंद, इसा मसीह आखिर इनके भी विचार समाज से अलग थे किंतु प्रभाव सकारात्मक था. जो अभिव्यक्ति समाज के लिए लाभकारी हो उसमे कोई बुराई नहीं हैं, लेकिन जिसका मकसद सिर्फ साम्प्रदायिक सौहार्द बिगाड़ना या किसी धर्म या समूह पर हमला करना हो उस पर प्रतिबन्ध लगाना अनिवार्य हो.

स्वतंत्रता का अधिकार लोकतंत्र की वृद्धि करने वाला एक महत्वपूर्ण अधिकार हैं, लेकिन ज़रूरत इस बात की हैं क़ि इस अधिकार के साथ जुड़ी नैतिक एवं सामाजिक ज़िम्मेदारी को हम समझे और उसका निर्वाह पूरी शिद्दत से करें. हमारी अभिव्यक्तियां निरंकुश या अमर्यादित न हो, बल्कि ये “जनाभिव्यक्तियां” हो..

Exit mobile version