ना तो कोई ‘वाद’ था ना ही कोई ‘पंथ’ भगत सिंह का

भगत सिंह

कम उम्र में साहित्यिक प्रबुद्धता व दर्शनशास्त्र की जिज्ञासा भगत सिंह के बहुआयामी व्यक्तित्व का एक हिस्सा मात्र है। भगत सिंह का झुकाव किस विचारधारा की ओर था?, ये सवाल उनकी वज्र के समान हौंसले, वीरता और निष्काम देशप्रेम के सामने बड़े ही बोने लगते हैं।

हाँ, ये सच है कि भगत सिंह में अध्ययन व ज्ञान की कभी न बुझने वाली प्यास थी।

यहाँ तक की फांसी के फंदे पर जाने से कुछ मिनट पहले तक भी वो लेनिन लिखित एक पुस्तक पढ़ रहे थे। 23 वर्षों के अपने छोटे से जीवन में वे निरंतर एक विचारधारा की तलाश करते रहे जो उनके अंतिम ध्येय ‘आज़ादी’ को न केवल न्यायसंगत ही ठहराती हो बल्कि उसे बढ़ावा भी देती हो। उनके जीवन के ऐसे नाजुक मोड़ पर उनका साक्षात्कार मार्क्सवादी / साम्यवादी विचारधारा से हुआ। 1917 की ‘रुसी क्रांति’ से वे बड़े ही प्रभावित थे और इसी वजह से उन्होंने मार्क्स और लेनिन को पढ़ना आरम्भ किया और फलस्वरूप उनकी विचारधारा का झुकाव प्राकृतिक रूप से साम्यवाद की और हो गया।

एक जोशीला नौजवान जिसने अंग्रेजो द्वारा भारतीय गरीबों पर हो रहे अत्याचारों को अपनी आँखों से देखा था, वो आहत था समाज में विद्यामान जातिप्रथा और उसके कारण उत्पन्न शोषण से, साम्राज्यवाद के खोखले ढांचे से, वो आहत था उस समय की भारतीय राजनीति की प्रतिनिधि पार्टी ‘कांग्रेस’ द्वारा गरीबों की अवहेलना से। ऐसे माहौल में उस समय मार्क्सवाद के आदर्शों में ही भगत सिंह को अपने विचारों का प्रतिबिम्ब दिखाई दिया था।

ये भी सच है की मार्क्सवादी होने के कारण वे प्राकृतिक रूप से एक नास्तिक भी थे। जिसे उन्होंने अपने एक लेख “मैं नैस्तिक क्यों हूँ” में जाहिर भी किया है। ये लेख उन्होंने जेल में ही अपने एक साथी द्वारा उन पर लगाये गये आरोप कि “तुमने अपनी प्रसिद्धि से उत्पन्न हुए घमंड के कारण अपने और भगवान् के बीच एक पर्दा बना लिया है” के जवाब में लिखा था। इस लेख में भगत सिंह ने लिखा था कि “अब और क्या सांत्वना है मेरे पास। अपनी कुर्बानी और यातनाओं के ऐवज में एक आस्तिक हिन्दू पुनर्जन्म में एक राजा बनने का सपना देख सकता है, एक मुस्लिम या इसाई स्वर्ग के आनंद की आस लगा सकता है। मैं क्या आशा रखूं? मुझे पता है की जब फांसी का फंदा मेरे गले में कस जाएगा और मेरे पैरों के नीचे से कड़ी हट जाएगी, तब वही मेरा अंत हो जाएगा।” भगत सिंह ने यहाँ साफ़ तौर पर कहा है कि वे पुनर्जन्म में विश्वास नहीं रखते क्योंकि वो एक नास्तिक हैं। पर जब फांसी से पहले उनके घरवाले उनसे अंतिम बार मिलने आते हैं तो भगत सिंह अपने पिता से कहते हैं कि “काश कि मैं एक बार फिर से भारतवर्ष में पैदा हो जाऊं, ताकि मुझे अंग्रेजो से लड़ने का एक और मौका मिले।” पुनर्जनम में विश्वास न रखने वाला नास्तिक ऐसी बात नहीं कर सकता। न ही कोई नास्तिक बेड़ियों में जकड़ी भारत माता की तस्वीर के सामने आज़ादी की सौगंध लेगा। भगत सिंह के मस्तिष्क में बेड़ियों में जकड़ी अपनी भारत माँ की तस्वीर निरंतर रहती थी। ये दोनों वाक्यात उनकी नास्तिकता का एक नया ही आयाम दिखाते हैं।

सच्चाई तो ये है कि भगत सिंह को किसी भी प्रकार के ‘वाद’ (साम्यवाद / पूंजीवाद) या किसी भी प्रकार के ‘पंथ’ (वामपंथ / दक्षिणपंथ) में जकड़ा नहीं जा सकता। भगत सिंह एक जटिल व्यक्तित्व थे। उनकी सोच को हमारा दिमाग नहीं पकड़ पाएगा। वर्तमान दक्षिणपंथी उनके नाम को शहीदी का पर्यायवाची मानते हैं और आज के भारत में जो वामपंथ की परिभाषा हो गई है उस से भगत सिंह का कोई सरोकार नहीं है। देशद्रोही विचारों की शरणस्थली बने वामपंथ में देशप्रेमी वीर-शिरोमणि भगत सिंह किसी भी प्रकार से फीट नहीं हो पाएंगे.

अमर भगत सिंह की तुलना आज के एक पथभ्रमित युवा से करना भारत का दुर्भाग्य है। और इससे भी बड़ा दुर्भाग्य है भगत सिंह के बहुआयामी व्यक्तित्व पर अपनी संकुचित विचारधाराओं की मुहोर लगाने की कोशिश। शहीद किसी धर्म या पंथ का नहीं होता, वो उस देश का होता है जिस देश के लिए उसने कुर्बानी दी है। जब एक तानाशाह मरता है तो उसका साम्राज्य समाप्त होता है, पर जब एक देशप्रेमी शहीद होता है तो उसका साम्राज्य आरंभ होता है। भगत सिंह का साम्राज्य आज हर भारतीय युवा के दिल पे है।

जब भी सुनते है तेरा नाम, है देशप्रेम दिल में जगता,
कुछ लोगों ने डाला है तेरी सोंच को विवादों में भगता।

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