जाट आन्दोलन: आरक्षण तो नहीं मिला, नींव की ईंट ज़रूर निकल गयी
जाट आन्दोलन क्यों हुआ? क्या हुआ? कैसे हुआ? ये सब सवाल पूछने से अब कोई फायदा नहीं है। पर कारणों के विश्लेषण से हमें भविष्य की तैयारी का अवसर मिल जाता है। जाट आन्दोलन का जो कारण था वो जाटों के लिए कोई विशिष्ट नहीं था। वैसी ही परिस्थितियां पहले भी गुज्जरों को आरक्षण मांगने के लिए विवश कर चुकी हैं। जाटों के आरक्षण मांगने के पीछे कुछ प्रमुख कारण हैं:-
१. जनसँख्या वृद्धि से उत्त्पन्न प्रतिस्पर्धा ने सामान्य श्रेणी (General Category) के दिल में एक भय बना दिया है, कि उन्हें प्रतिस्पर्धा आधारित सरकारी नौकरी नहीं मिल सकती। हर सामान्य श्रेणी वाला व्यक्ति अति कुशल नहीं हो सकता। सामान्य बुद्धि वाले भी लोग सामान्य श्रेणी में हैं, जो स्वयं को इस प्रतिस्पर्धा में पिछड़ता हुआ देख रहे हैं, और आरक्षण की मांग उनके लिए इस पर्तिस्पर्धा से पार पाने का आसन रास्ता है।
२. कृषि योग्य भूमि का कम होना। जनसँख्या वृद्धि का सबसे बड़ा दुष्परिणाम किसानो को भुगतना पड़ा है। पीढ़ी दर पीढ़ी जमीन बटती जा रही है। जो जमीन एक घर का काम चला रही थी उसे 25 वर्ष पश्चात् 4 घरों का खर्चा चलाना है, जो की संभव नहीं है, क्योंकि महंगाई जिस दर से बढ़ रही है उस दर से किसानो के उत्पाद का मूल्य नहीं बढ़ रहा। और जाट एक कृषि आधारित जाति समुदाय है।
३. कुरुक्षेत्र से MP श्री राज कुमार सैनी का बार बार जाटों के विरूद्ध बयानबाजी करना। कुछ अलग करने की चाह में राज कुमार सैनी ने जाटों के विरुद्ध 35 जातियों को एकत्रित होने का आह्वान किया। दिन प्रतिदिन जाटों के खिलाफ भड़काऊ बयान दिए। स्वाभाविक था की अब तक सत्ता में रहे जाटों को ये बातें अपने खिलाफ हो रही साजिश के रूप में नजर आई। बीजेपी शासित हरियाणा सरकार भी सैनी पर लगाम लगाने में विफल हुई जिसके कारण जाटों में सरकार के प्रति गुस्सा व अविश्वास बढ़ता गया।
४. जाटों का बाहुबल। जाट हरियाणा के हर क्षेत्र में बहुतायत में मौजूद है। जाट हरियाणा की कुल जनसँख्या के लगभग 28% हैं। उन्होंने जाट आन्दोलन किया क्योंकि वे कर सकते थे। किसी भी फसल के देख-रेख या कटाई का मौसम नहीं था। गरीबी व बेरोजगारी से सबसे अधिक आहत किसान वर्ग खाली था।
उपरोक्त कारणों ने जिस जाट आन्दोलन को जन्म दिया वो बहूत ही जल्द पटरी से उतर गया। हरियाणा ने उस दिन अपना ही घर फूंक कर तमाशा देखा। हरियाणा रोडवेज की जलती हुई बस यही सोच रही थी कि मैं किस दोष की सजा भुगत रही हूँ। मैंने कभी अपनी सीटों का जाति आधारित आरक्षण नहीं किया, मैंने कभी किसी को उसके गंतव्य तक पहुँचाने से पहले उसकी जाति नहीं पूछी। कुरुक्षेत्र की वो लाल मिट्टी भी उस दिन स्तब्ध थी। पूछ रही थी की क्यों आज एक बार फिर, मुझ से ही जन्मे मेरे लाल, मुझे अपने ही भाइयों के रक्त से लाल करने में लगे हैं। सरकार ने भी आग लगने के बाद कुआ खोदा पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
इस से पहले एक शांतिपूर्ण जाट आन्दोलन हो चुका था। तब UPA सरकार द्वारा 2014 में मंजूर किये गये जाट आरक्षण को सर्वोच्च न्यायलय ने ‘राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग’ (NCBC) की रिपोर्ट देखने के बाद निरस्त कर दिया था। NCBC ने अपनी रिपोर्ट में कहा था की जाट समुदाय ‘अन्य पिछड़ी जाति’ (OBC) में शामिल किये जाने वाली शर्तों को पूरा नहीं करता। NCBC ने जाटों के सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व कम होने वाले दावे को भी निराधार व गलत पाया था।
लेकिन इस बार जाटों का कहना है को वो प्रत्येक जाट के लिए नहीं बल्कि गरीब जाट के लिए आरक्षण मांग रहें हैं क्योंकि OBC में आने के बाद केवल उस परिवार को आरक्षण का लाभ मिलेगा जिसकी वार्षिक आय 6 लाख से कम है। तो यहाँ सवाल यह उठता है कि फिर अन्य जातियों के ऐसे परिवारों को (जिनकी वार्षिक आय 6 लाख से कम है) आरक्षण क्यों नहीं मिलना चाहिए?
हर राज्य में कोई न कोई एक जाति बहुमत में होती है। यदि वे सब इसी तरह बाहुबल के आधार पर आरक्षण की मांग करने लगे तो जिस सामाजिक शोषण को समाप्त करने के उद्देश्य से आरक्षण का नियम बना था, वो उद्देश्य ही विफल हो जाएगा। जो तर्क हरियाणा में जाटों ने दिए हैं, वे सभी तर्क आने वाले समय में मुस्लमान समुदाय भी दे सकता है। उदहारण के तौर पर, जाटों की तुलना में मुसलमानों का आर्थिक रूप से काफी कमजोर होना, सरकारी नौकरियों में कम प्रतिनिधित्व, जनसँख्या वृद्धि से कम हो चुकी जमीन के कारण कृषि पर निर्भरता का समाप्त होना, किसी न किसी राजनेता द्वारा उन्हें उकसाते रहना आदि। जाटों ने आरक्षण मांगने के लिए अन्य जातियों व समुदायों का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। अब उन्हें पता है की अनुनय से काम नहीं चलेगा बल्कि पहले उन्हें अपनी ही जाति के लोगों को ये बताना होगा की आरक्षण उनका हक़ है, और फिर सरकार को बाध्य कर उस हक़ को छिनना होगा। अब उन्हें ये भी बोध है की भारतीय राजनीति उनके इस उपक्रम में हमेशा उनकी सहयता ही करेगी। इस प्रवृत्ति का अंत अराजकता की एक ऐसी आंधी से होगा जिसमे भारतीय भाईचारा व सोहार्द हमेशा के लिए नष्ट हो जाएगा।
यह जाट आन्दोलन ना सिर्फ हरियाणा के राजनीतिक इतिहास के काले पन्नों में दर्ज हो चुका है बल्कि इसकी परछाईं भारतीय राजनीति में भी हमेशा के लिए रहेगी।
अभी के लिए जाट आन्दोलन की आग तो भुझ चुकी है परन्तु इसके नीचे के अंगारे अब भी धधक रहे हैं। वो जल्दी शांत होने वाले भी नहीं हैं। भारतीय राजनीति में कुछ ऐसे अवसरवादी लोग हैं जो एक चिंगारी की आस में घूमते रहते हैं की कब कोई चिंगारी मिले और वो उसे आग में तब्दील कर अपनी रोटियां सेंके। और हरियाणा में चिंगारी नहीं अंगारे मिलेंगे।
हरियाणा में एक जुमला चलता है “नीचे के ईंट निकालना” जिसका अर्थ है की नीवं (अर्थात आधार) को ही हटा देना। जब कोई नीचे की ईंट निकाल देता है तो दीवार ज्यादा देर तक खड़ी नहीं रह सकती। आरक्षण के लिए किये गये जाट आन्दोलन में आरक्षण का मुद्दा तो कहीं विलुप्त ही हो गया। बस भाईचारे की जो एक इमारत खड़ी थी उसकी नीचे की ईंट निकाल दी गई है। अब ईमारत बहुत कमजोर हो चुकी है। अब यह हम पर ही निर्भर है की उस दीवार को और कमजोर करना है या उसकी मरम्मत कर उसे और अधिक मजबूत बनाना है।