बिहार चुनाव महागठबंधन की महाजीत के साथ समाप्त हो चुका है | आरोप-प्रत्यारोप का एक स्वाभाविक दौर शुरू हुआ है | छीछालेदर की जो कसर चुनाव में रह गयी थी वो दिवाली की रात जलने में असफल पटाखों की तरह अब निकल रही | बिहार की राजनीति का ज़रा सा भी ज्ञान न रखने वाला व्यक्ति भी आपको ये बताते नहीं थकेगा कि किस तरह भाजपा अपने नेताओं की बदजुबानी और असंतुष्ट ‘विभीषणों’ के कारण पराजय को प्राप्त हुयी | अगर आप अटल बिहारी वाजपेयी एवं कुछ अन्य नेताओं को छोड़ दें तो भाजपा ने पूर्व में भी परिमार्जित-भाषा के कोई विशेष मानक स्थापित नहीं किये थे | वैसे भी चुनाव बिहार का था, नेताओं को जितनी जरूरत वाणी पर नियंत्रण रखने की थी उससे कहीं ज़्यादा जरूरत थी विश्लेषकों को अपनी अपेक्षाओं पर नियंत्रण की | बिहार के चुनाव ऐसे ही होते रहे हैं और निकट भविष्य में भी कोई परिवर्तन अपेक्षित नहीं |
नेता तो फिर भी सुधर जाएंगे पर गैर-जिम्मेदाराना बयानों को देश पर अकस्मात आन पड़ी प्राकृतिक आपदा जैसा भीषण बना कर दिखाने वाला मीडिया कहीं नहीं जाने वाला | सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय जब तक अरुण जेटली जी के पास है तब तक मीडिया वाले उनको दिन भर ‘असहिष्णु’ कह कर शाम को ‘सहिष्णुता’ का पाठ पढ़ा सकते हैं | लोकसभा के जिस चुनाव में भाजपा से खड़े होकर कई आयाराम-गयाराम भी सांसद हो लिए उसमें उनके जैसा बड़ा नेता हार जाए तो समझ लीजिये कि नेता द्वारा स्थानीय कारकों की उपेक्षा और मीडिया प्रबंधन में भारी लापरवाही की गयी है | यही कारण था कि मीडिया बिहार चुनाव के दौरान उनकी सरकार को परत दर परत उधेड़ता गया और वो मूक दर्शक ही बने रहे |
जहाँ तक बात विभीषणों की है तो भारत का इतिहास पटा पड़ा है ‘जयचंदों’ के महिमा-मण्डन से | वैसे भी नाम और काम अगर रावण सरीखा हो तो अंजाम भी रावण ही होता है | इसके लिए किसी विभीषण के विश्वासघात की आवश्यकता नहीं |
फिर क्या कारण थे भाजपा की हार के? विकास का मुद्दा? ये भी नहीं हो सकता! किसी भी दिन का अखबार उठा लीजिये |भारतीय-अर्थव्यवस्था के सुधरने के सन्दर्भ में कोई भी खबर न हो, ऐसा संभव नहीं ! जमीनी स्तर पर नीतियों का प्रभाव दिखने में अभी कुछ और वक़्त लगेगा पर भारतीय वोटर अब ऐसा भी अबोध नहीं कि उसको सरकार की मंशा का अंदाजा तक न लगे | बिहार चुनाव किसी टेस्ट मैच जितना अप्रत्याशित था पर ऐसा क्या हो गया कि फॉलो-ओन नितीश का हो गया और पारी से हार भाजपा की हो गयी ! स्वयं प्रधानमन्त्री की जिह्वा पर मानो अमूल विराजमान था | फिसलती रही और बिहार जाता रहा | आखिरी गेंद पर छक्का हर बार नहीं लगता | पड़ोस के मुल्क में जरूर लगा करता है और वहाँ आपकी हार पर पटाखे भी जलते हैं | क्रिकेट मैच की हार पर, अन्यथा न लें | हार का कारण भाजपा के मुख्यमंत्री पद के दावेदार जितना रहस्यमयी नहीं है | जब जीतना ही नहीं था तो व्यर्थ किसी एक को दावेदार घोषित कर बाकी दस को नाराज़ क्यों करते |
सारा खेल ही सीट-बँटवारे का नहीं वोट-बँटवारे का था | इस थ्योरी पर आगे बढ़ने से पहले जरूरत है बिहार विधानसभा 2010 और लोकसभा 2014 के वोटों के गणित को समझने की |
सबसे पहले बात लोकसभा चुनाव की | मान लिया जाए कि महागठबंधन उस समय भी प्रभावी था और सभी ‘सेक्युलर’ पार्टियां एक साथ ‘साम्प्रदायिक’ मोदी जी के विरूद्ध चुनाव लड़ी थीं | भाजपा का बिहार में कुल वोट प्रतिशत था : 29.86% | इसमें पासवान जी की पार्टी लोजपा का भी 6.50 प्रतिशत जोड़ दें तो होता है 36.36% | असंगठित विपक्ष वाले किसी भी चुनाव में विजयी होने वाले उम्मीदवार को कम-ज़्यादा कर के लगभग इतने ही प्रतिशत वोट प्राप्त होते हैं | लोकसभा चुनाव में विपक्ष असंगठित था इसलिए बड़ी ही सरलता से अधिकतर सीटों पर भाजपा को जीत मिली | अब ज़रा असंगठित विपक्ष के वोट प्रतिशत पर भी नज़र डालें जो कि था तो मोदी-विरोधी ही लेकिन अपने आपसी वैचारिक मतभेद के चलते चुनाव में मोदी-विरोध को ज़्यादा सुनियोजित तरीके से तरजीह न दे सका | कांग्रेस-जेडीयू-राजद का संयुक्त वोट प्रतिशत था : 45.06% | अगर हम मान लें कि महागठबंधन के एक साथ चुनाव लड़ने पर वोटों का ट्रांसफर भी इसी अनुपात में होता तो यकीन मानिए आज आनंदीबेन पटेल गुजरात की मुख्यमंत्री न होतीं | मोदी आज भी Vibrant Gujarat Summit की मेजबानी कर रहे होते और हमारा देश आज भी ‘सहिष्णु’ होता |
अख्खड़ से दिखने वाले लालू जी ये बात समझ चुके थे | समझ तो अमित शाह भी गए थे महागठबंधन के गठन उपरान्त | सपा को अलग करने के प्रयास में सफल भी रहे | पर किसी अन्य व्यक्ति को अपनी महत्त्वाकांक्षी विकास परियोजनाओं के लिए केंद्र सरकार के समर्थन की उतनी आवश्यकता नहीं थी जितनी अखिलेश यादव को थी | अतः महागठबंधन का और विघटन संभव नहीं था |
यही विश्लेषण को बिहार के 2010 के विधानसभा चुनाव में फिट कर के देखते हैं | जिन सीटों पर भाजपा लड़ी वहाँ भाजपा का वोट प्रतिशत था : 39.56 % और जेडीयू का : 38.77% | मतलब साफ़ है कि सुशासन बाबू नितीश भी भाजपा के साथ जहाँ-जहाँ से लड़े वहाँ का अभी औसत वोट प्रतिशत 40 % का बैरियर पार न कर सका | अगर उस समय राजद,लोजपा और कांग्रेस मिलकर कर महागठबंधन बना लेते तो बिहार में नितीश की सरकार न बन पाती | यही है वोटों की गणित |
अबकी बार जब भाजपा नितीश के वोटरों के समर्थन के बिना मैदान में उतरी तब भी उसको 24.4% वोट मिले जबकि 2010 में नितीश को लेकर उसको 39.56% | स्पष्ट है कि ये भाजपा समर्थक थे जिनका वोट 2010 में भारी संख्या में नितीश जी को मिला था जिसको अब उन्होंने अपना समर्थक बना लिया है | इस बिहार चुनाव में जो भी महागठबंधन के विपरीत चुनाव लड़ता उसका भी भाजपा जैसा ही हाल होता, चाहे वो सुशासन बाबू होते या किंग-मेकर लालू | संगठन में बड़ी शक्ति होती है और जहाँ एक-एक वोट जुड़ता है वहाँ विकास नहीं संगठित विरोध ही जीतेगा !
तो क्या ये मान लिया जाए कि आने वाले उत्तर प्रदेश चुनाव में भी यही कहानी दोहराई जायेगी | जी बिलकुल ! लाख विकास योजनाएं घोषित कर लीजिये पर विकास के मुद्दे पर अमरीकी राष्ट्रपति के चुनाव लड़े जाते है उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव नहीं | यहाँ तो जाति और धर्म ही चलेगा |भाजपा के लिए इससे बचने के दो ही उपाय हैं |
पहला, भाजपा को 40% से भी अधिक वोट मिलें तब महागठबंधन संगठित होकर भी कोई ख़ास उथल-पुथल नहीं कर पायेगा क्यूंकि कुछ प्रतिशत वोट निर्दलीय एवं अन्य छोटी मौका-परस्त पार्टियों को भी मिलते हैं जिनका प्रतिशत उत्तर प्रदेश में कहीं से भी अधिक होगा | सीट जीतना तो मुश्किल है पर आम आदमी पार्टी भी ठीक-ठाक संख्या में वोट प्रतिशत प्राप्त कर पाएगी |एक नज़र डालिये लोकसभा चुनाव में विजयी उम्मीदवारों के वोट प्रतिशत पर | चुनाव राष्ट्रीय स्तर का था इसलिए क्षेत्रीय पार्टियों को कम वोट मिले | इसके बाद भी 41 सीटों पर 40-50 % वोट से जीत संभव थी | 40% से अधिक वोट प्रतिशत उम्दा प्रदर्शन की श्रेणी में आता है जो मोदी लहर में ही संभव था | 2017 में शायद कोई मोदी लहर नहीं रहेगी | विधानसभा चुनावों में बहुत ही कम सीटों पर ये नज़ारा देखने को मिलेगा | कांटे की टक्कर वाली 20 सीटों पर 40% से भी कम वोट पर जीत हुयी थी | निष्कर्ष ये है कि महागठबंधन बनने की स्थिति में भाजपा को टक्कर देने के लिए लगभग 40% वोट प्राप्त करना होगा जो कि बहुत ही मुश्किल होगा |सूबे में आदमी को विकास दिख जरूर रहा है पर ये कहना मुश्किल ही होगा कि ग्रामीण उत्तर प्रदेश में लोग प्रदेश एवं केंद्र द्वारा कराये गए कार्यों में अंतर समझेंगे। केंद्र सरकार की राज्य सरकार द्वारा सब्सिडी वाली LED बंटवाना ऐसा ही कदम था जिसका श्रेय राज्य सरकार को मिला ।
दूसरा, भाजपा को कोई बड़ा सहयोगी दल मिल जाए | जी हाँ, इशारा साफ़ है | केंद्र के विकास पुरुष नरेन्द्र मोदी और राज्य के विकास प्रतीक अखिलेश यादव अगर चुनाव से पहले या बाद में कोई भी गठबंधन बनाते हैं तो इनको हराना असंभव ही होगा | उत्तर प्रदेश की राजनीति समझने वाला इस संभावना से कभी इंकार नहीं कर सकता | उत्तर प्रदेश के विकास के कोण से भी शायद यही एकमात्र विकल्प होगा | गैर-भाजपा सरकार में अखिलेश यादव ही मुख्यमंत्री होंगे | ऐसे में भाजपा के सामने चुनौती गंभीर है | सपा के साथ गए तो लोग नैतिकता का पाठ पढ़ाएंगे, न गए तो चुनावी-रणनीति का | फैसला मोदी जी को करना है | हाँ, जहाँ तक बात बिहार चुनाव की है तो ऐसा है कि अभिमन्यु भी चक्रव्युह के केवल छह द्वार भेदना जानता था सातवें में वीरगति को प्राप्त हुआ था । नरेन्द्र मोदी तो फिर भी साधारण व्यक्ति हैं । और फिलहाल अभी भी प्रधानमंत्री हैं ।
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