हिटलर कहता था कि एक झूठ बोलो, बार बार बोलो और अंत में सब उसे सच मान लेंगे। भारतीय मीडिया (मेनस्ट्रीम मीडिया) का एकसूत्री एजेंडा बस यही है। भारतीय मीडिया के पुरोधा, मठाधीश जो ऊपर बैठे हैं वो पूरे देश का एजेंडा तय करते हैं जो कि हमेशा उनका अपना एजेंडा होता है।
ब्रेकिंग न्यूज़ के क्यूटियापे के ज़माने में सेलिब्रिटी की पाद भी ब्रेकिंग है और राहुल गाँधी का चुटकुला भी। चरित्र हनन से लेकर सुप्रीम कोर्ट बनने की सारी प्रक्रिया हमारे न्यूज चैनलों के एंकर बख़ूबी निभाते हैं। ये सारा खेल ब्रेकिंग न्यूज़ के नाम पर होता है। सारी क़वायद सिर्फ़ इस बात की कि सबसे पहले हमने ब्रेक की।
कुछ रोचक उदाहरण देखिए। सरबजीत नाम का लड़का परवर्ट हो जाता है क्योंकि जसलीन कौर नाम की एक लड़की ने उसकी तस्वीर डालकर खुद को (विशेष कारणों से) उसका शिकार बताया था। और मीडिया वाले पिल पड़े। किसी ने भी दूसरा पक्ष जानने की कोशिश नहीं की। क्योंकि फ़र्क़ नहीं पड़ता।
बाद में पता चला कि मोहतरमा नौटंकी कर रहीं थीं। भला हो कि सोशल मीडिया में सिर्फ़ लिंकबाजी और ट्रॉलिंग ही नहीं होती। कुछ पेज़ ऐसे हैं जो इन महानुभावों की मठाधीशी उजागर करते रहते हैं।
ऐसे एंकरों को इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता कि जिस बाप की बेटी मरी है, जिसके घर में ये सब हो रहा है उसको क्या परेशानी हो रही होगी। पूरे परिवार को अब्बास-मस्तान के रेस-द्वितीय टाईप की ट्विस्टी स्टोरी बनाकर पेश किया जा रहा है।
मीडिया जब मज़े लेने लगे तब समझो कि गड़बड़ है। मीडिया जब किसी की मौत पर मज़े ले तो बहुत ज्यादा गड़बड़ है। सारी महत्वपूर्ण बातें गायब हो जाती हैं जबतक की कोई दूसरा मामला सामने ना आ जाए। देश की अर्थव्यवस्था, आंतरिक सुरक्षा, पाकिस्तानी टेररिस्ट का ज़िंदा पकड़ा जाना, प्रधानमंत्री की यात्रा आदि आदि, आदि आदि हो जाती है। ये सब हासिए पर चले जाते हैं क्योंकि आदमी को उत्तेजित करना मीडिया का परम सत्य है।
यूँ तो लगभग हर रोज लोकतंत्र की मौत, न्याय प्रक्रिया की मौत होते रहती है मीडिया में लेकिन इसके अंदर की सड़ाँध को रोकने वाला तो छोड़िए, बोलने वाला भी कोई नहीं है। चार फेसबुक पेज़ और सात ट्विटर हैंडल से इस कोढ़ को ख़ात्मा नहीं किया जा सकता। भारतीय मीडिया का फ़ॉक्सिकरण हो गया है जहाँ लाल और ब्लू रंग के शेड, गला फाड़कर अपने विचार (और अपने मालिक का एजेंडा) थोपता एंकर, नौ मुचुकमैना (डंब लुकिंग) पैनलिस्ट जिनके पास हर मर्ज़ पर राय है, उस बात को तरज़ीह देते हैं जिसकी ज़रूरत किसी को नहीं है।
इस डार्क क्लाऊड में एक ही सिल्वर लाईनिंग है, सोशल मीडिया। अच्छी बात ये है कि इसको इस्तेमाल करने वाले अंग्रेज़ी के विचारोत्तेजक न्यूज़ चैनलों के दर्शक से ज्यादा हैं। कमसकम यहाँ सरबजीत को दूसरा पक्ष रखने का मौका मिल जाता है और उसके साथ लाखों लोग खड़े हो जाते हैं। यहाँ पर इंद्राणी मुखर्जी और पूरे परिवार को न्याय होने से पहले ही फाँसी नहीं दी जाती।
लेकिन यहाँ भी ट्रॉल और लिंकबाजी इतनी प्रचलित हो गई है कि सत्य क्या है उसका पता करना मुश्किल हो जाता है। यहाँ पर हर बात के दोनों पक्ष के लिए हजारों लिंक की दलील प्रस्तुत कर दी जाती है। इन दलीलों का सत्य क्या है उसे जानने की कोशिश भी नहीं होती और गालीगलौज चालू हो जाता है। अंत में निष्कर्ष होता है शून्य।
मेरी राय है कि लिंकबाजी से बचिए। अपना विचार रखिए। समाज में विचारकों की कमी हो गई है, लिंकबाजी और इंटरनेटिया/फेसबुकिया देशभक्त/धर्म-परायण बहुत हैं। लेकिन इससे समाज का बुरा ही होना है। आप जब अपनी राय के बिना कहीं से लिंक उठाकर चेप देते हैं और अपने अंदर विजेता का फ़र्ज़ी उन्माद महसूस करते हैं तो आप भी अर्णब या बरखा दत्त जैसे बिकाऊ पत्रकार ही बनते हैं।