त्रिपाठी जी के लड़के के लिए कोई आरक्षण नहीं

विद्यापति त्रिपाठी जी के लड़के सर्वेश त्रिपाठी ने अचानक से “हॉल एंड नाईट” की अलजेब्रा की किताब उठा के पटक दी. इलाहाबाद के “सुमित्रा निवास” में मानो सन्नाटा सा छा गया. प्रकांड पंडितों और मूर्धन्य विद्वानों के कुल में विद्या की ऐसी निंदा अक्षम्य अपराध थी.

 

“सर्वेश, ये क्या किया तूने नीच? सरस्वती की अवमानना की” त्रिपाठी जी खांसते हुए बोले.

 

“हाँ की, और आगे भी करूँगा” सर्वेश ने पिताजी की आँखों में आँखें डाल के कहा.

 

“छी छी छी, तेरे पिताजी को लोग सम्मान से पंडित जी पंडित जी कहकर पुकारते हैं, तेरे दादा को चारो वेद कंठस्थ थे, तेरे परदादा का वैदिक शास्त्रार्थों में कोई सानी नहीं था और तू यहाँ पुस्तक पटक रहा है नराधम”

 

“कहा ना की हाँ मैंने पुस्तक फैंकी और आगे भी फेंकता रहूंगा” सर्वेश ने उद्दंडता से उत्तर दिया.

 

“विद्या ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रताम् ।पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततः सुखम् अर्थात विद्या विनम्रता प्रदान करती है, विनम्रता योग्यता प्रदान करती है, योग्यता धन और धन सुख प्रदान करती है” विद्यापति त्रिपाठी जी ने श्लोक के माध्यम से हठी बालक को समझाने का प्रयत्न किया.

 

“घंटा प्रदान करती है” सर्वेश ने चीख के कहा.

 

निस्तब्धता छा गयी, त्रिपाठी जी सकते में आ गए, माँ भागते हुए कमरे के अन्दर आ गयी और रोने लगी.

 

सर्वेश ने अंततः चुप्पी तोड़ी.

 

“गुजरात में पटेल समुदाय धरने पर बैठा था अब हरियाणा में जाट पटरियों पर बैठे हैं, सब कुछ सही गया अगर उनके लिए तो आरक्षण पक्की समझो”

 

“जिसको देखो सब हरे नीले पीले फॉर्म लेके घुमते रहते हैं कॉलेज में, एक मैं, एक साला गोवर्धन तिवारी, और एक वो गणेश सिंह हम ही तीन हैं जो सफ़ेद फॉर्म लेके चाटते रहते हैं”

 

“अच्छा” विद्यापति त्रिपाठी जी ने खंखारते हुए कहा.

 

“हाँ वो सहदेव पासवान कह रहा था की हम तीनो का पत्ता तो परीक्षा से पहले ही कट जाएगा”

 

“कौन तीनो?” विद्यापति त्रिपाठी जी ने उत्सुकता से पुछा.

 

“अरे हम ही तीनो – मैं, गोवर्धन तिवारी और गणेश सिंह. बाकियों को तो फॉर्म भी सस्ते मिले कम्पटीशन के”

 

“हम्म्म्म” विद्यापति त्रिपाठी जी ने गहरी सांस खीची.

 

“हाँ तो अब हमने निर्णय कर लिया है, ये पढाई लिखाई, नौकरी चाकरी के स्वप्न सब छलावा है. टूटे ह्रदय के साथ ये किताब विताब हमसे ना पढ़ा जाएगा”

 

“अरे पर बेटा हम ब्राह्मण हैं, हमें थोड़े ना मिलेगा आरक्षण? हमारी पूँजी तो ज्ञान है” विद्यापति त्रिपाठी जी ने बेटे को समझाते हुए कहा.

 

“पूँजी नहीं सब मिथ्या भ्रम है, क्या कर लिया आपने अपने ज्ञान का? आईएएस बनते बनते क्लर्क बन गए और ज़िन्दगी गुजार दी क्लर्की में. हमारे बस का नहीं पिता जी ये ज्ञानोपार्जन. हमारे लिए तो दूकान खुलवा दीजिये, अगर कल फिर कॉलेज गए तो वो सहदेव और उसके सारे साथी मार खा जायेंगे हमारे हाथ से” सर्वेश ने खीजते स्वर में कहा

 

“हिंसा की बात मत करो बेटा, वो क्षत्रियों के लिए छोड़ दो. तुम अपने ज्ञान से सबको नीचा घोषित कर दो” विद्यापति त्रिपाठी जी ने गर्व से कहा.

 

“पिताजी, आपसे पंडिताई नहीं छूटनी…आप घर बैठ के जनेऊ भांजो. हम अपनी योग्यता से अवगत हैं , अगर आरक्षण नहीं होता तो हम जरूर कम्पटीशन में उतीर्ण होते लेकिन यहाँ तो पैर रखने की भी जगह नहीं. हम अभी इसी क्षण विद्या का परित्याग करते हैं. आपसे हो पाए तो दूकान खुलवा दीजिये, नहीं तो असली ब्राह्मण की तरह भिक्षा मांग करके पैसा ले आयेंगे. हमारी प्रतिज्ञा गंगापुत्र भीष्म की प्रतिज्ञा की तरह अटल है” सर्वेश ने गर्जन के साथ घोषणा की.

 

“ठीक है बेटे, तथास्तु. गंगापुत्र भीष्म वाली उक्ति सही थी, आखिर पुत्र तो तुम ब्राह्मण के ही हूँ”

 

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