कल और आज की शिक्षा प्रणाली : एक कुंठित भारतीय की समीक्षा

भारत वर्ष में अधिकांश को अपने वर्तमान से ज्यादा इतिहास पर नाज़ है, कुछ लिखित, कुछ मौखिक, कुछ बस सपनों वाला इतिहास , कही पौराणिक कथाएं कुछ जिनके प्रमाण हैं कुछ जिनके नहीं है तो कुछ बस सुनी सुनाई लोक कथाएं| लेकिन ऐसी कथाओं के साथ मूलभूत समस्या ये है कि कहने वाले उन बातों पे जोर देते हैं जो वो समझ पाते हैं और उनको चबा जाते हैं जिनसे वो इत्तेफ़ाक नहीं रखते|बिना और समय लिए मैं मूल विषय पर आ जाता हूँ, एक चीज़ जिसका स्मरण तो सबको होगा लेकिन उसकी बात कोई विरले ही करता है| मैं जिस चीज़ की बात कर रहा हूँ वो है शिक्षा प्रणाली| एक समय था जब लोग शिक्षा लेते थे ताकि वो समाज में अच्छे इंसान बने , ज्ञान बांटे, कुछ युद्ध कला और राजपाट में निपुण होने की शिक्षा लेते थे| कुछ ज्ञान, धर्म, राजनीति तथा कूटनीति की शिक्षा लेते थे | कुछ व्यापार चलाने वाले तो कुछ सेवा सम्बन्धी व्यवसायों में निपुण होते थे | कलाकार होते थे जो शिल्पकला , हस्तकला, चित्रकला से लेकर कुम्हारों की मिट्टी से बर्तन बनाने की कला में माहिर बनते थे| हर कोई उन गुणों को सीखता और उनमे कुशलता हासिल करता था| अरस्तु ने सही कहा था “परिवार समाज की प्रथम पाठशाला है’| लोग वही से अच्छे बुरे गुण सीखते हैं, कुछ ऐसे जो हम २-३ साल की उम्र से पहले सीखते हैं और जो ताउम्र हमारे व्यक्तित्व का हिस्सा रहते है|जहाँ शिक्षा जरुरत के मुताबिक थी , वही कुछ लोगों का मानना है कि समाज में वर्ण बना कर जातिप्रथा फैलाया गया था| शुरुआत में लोग एक दूसरे के पेशे की इज्ज़त करते थे, और इस पूरी व्यवस्था में कोई समस्या नहीं थी , यूँ तो लोग पुश्तैनी पेशा चुनते थे जिसकी नींव बचपन में ही पड़ जाती थी, लेकिन कोई भी अपने हिसाब से पेशा चुन सकता था| विश्वामित्र जैसे जन्म से क्षत्रिय का राजर्षि और फिर महर्षि बनना और दरभंगा महाराज और रावण जैसे ब्राह्मणों का राजा होना कहीं ना कही ये बात की पुष्टि करता है| मैंने मध्यकालीन भारत से भी उदाहरण दिये क्योंकि कुछ लोग कथाओं में विश्वास नहीं रखते| तो जातिवाद की नींव को पूर्णत प्राचीन भारत के शिक्षा प्रणाली और सामजिक ब्यवस्था पर थोप देना अर्धसत्य होगा अन्याय भी| लेकिन उस समय के प्रणाली के आलोचकों के विचारों को इसमें सम्मिलित न करना भी अनुचित होगा|मेरा तर्क ये नहीं कि आप इन कथाओं पर विश्वास कीजिये या ना कीजिये, कतई नहीं, वह आपका निजी निर्णय है, अपितु मैं कहना चाहता हूँ की कहीं ना कहीं दूसरों की नक़ल कर कर हमने अपने शिक्षा प्रणाली को बहुत जटिल और अव्यवहारिक बना लिया है| आज भी कभी हम चाणक्य और आर्यभट्ट जैसे विद्धानों का नाम ले ले खुद को सांत्वना देते हैं तो कभी रामानुजम, मेघनाथ सहा, राजा रविवर्मा, टैगोर, सतेन्द्र नाथ बोस और जगदीश चन्द्र बसु जैसे लोगों के उदाहरण दे पुरे भारतीय समाज के विद्वान होने के कथन को सिद्ध करने की बात करते है| समस्या ये भी है कि हमें कुछ लोग की सफलता खुश कर देती है, एक औसत इंसान को सफल कैसे बनाया जाये उस पर ध्यान नहीं देते| अभिप्राय ये है कि हमारी प्रणाली कुछ सिखाने की बजाये परीक्षा लेती है, तेज हो तो आगे आओ नहीं तो गर्त में जाओ| कहीं ना कही ये कमजोरी के लक्षण लगते हैं, पुरे समाज की कमजोरी के लक्षण| सच में हम अपने शिक्षा प्रणाली में इतने विकार ला चुके हैं कि १५- १८ साल के शिक्षा के बाद भी एक युवा कोई सामान्य काम करने के भी लायक नहीं होते हैं उन्हें प्रशिक्षण चाहिए होता है| क्योंकि शिक्षा तो हुई ही नही होती है, होती है तो बस परीक्षा |

दुख तब होता है जब इस महान कहें जाने वाले राष्ट्र के नेताओं को साक्षर और शिक्षित में फर्क तक महसूस नहीं होता| गाँधी कहते थे “अक्षर ज्ञान न तो शिक्षा का अंतिम लक्ष्य है और न उसका आरंभ।” यह बात अब कोई याद नहीं रखता| सब परेशान हैं, नक़ल करने में , अमरीका के No child left behind Act 2001 की| कोई मध्यांतर में रोटी की बात करता है , कोई ज्यादा से ज्यादा नामांकन (सिर्फ नामांकन) की, कोई साइकिल की| जी नहीं मैं नकरात्मक नहीं हूँ इन चीजों की भी जरुरत है , लेकिन एक युवा देश(एक देश जहाँ अधिकाँश जनता काम करने के उम्र में हैं) में क्या हमारी जिम्मेदारी ये नहीं, कि हम योजना बनाए के साथ साथ उन्हें कार्यान्वित भी करें|

एक किस्सा याद आ रहा है, थोड़े दिन पहले मैं एक दूकान पे गया वहां मुझे एक ११ साल का बच्चा मिला , शायद कुपोषण का शिकार रहा होगा, क्योंकि अपनी उम्र से कम लग रहा था| उसके माँ बाप नहीं थे, सड़क पे घूमते घूमते एक दिन वो उस दुकान पर गया और काम मांगा, पहले दूकानदार ने ना नुकुर किया फिर उसने उसे अपने घर और दुकान पर छोटे छोटे काम करने के लिए रख लिया| वो लड़का पढ़ता भी है| मैंने दुकानदार, जो कि मेरा स्कूल का सहपाठी और दोस्त है, से पूछा क्या ये सही है , बाल मजदूरी नहीं है ये! उसने बोला अगर मैंने इसे नहीं रखा तो ये रोड पे सोयेगा| क्या हमने प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य करने के लिए सारे जरुरी कदम उठाये हैं, कानून बनाना आसान है, उन्हें व्यावहारिक कौन बनाएगा? खैर मेरे पास तब उस प्रश्न का उत्तर नहीं था, आज भी नहीं है, वो दोस्त शायद ज्यादा व्यावहारिक था , मैं कुछ ज्यादा ही नीतियाँ पढ़ चुका हूँ जिनकी कोई उपयोगिता नहीं थी| किसी ने सही कहा है ‘भूखे पेट भजन नहीं होता’| उस बच्चे की शायद यही किस्मत थी| हम अभी भी तैयार नहीं हैं , शिक्षा के मौलिक अधिकार अभी भी कागज पे ही है शायद| अंतरद्वंद की उधेड़बुन में लगा हुआ था|

बहुतों को शिक्षा मिलती ही नहीं है , कुछ को मिलती है लेकिन उसका स्तर नहीं है , और कुछ खुशनसीब जो अपनी प्रतिभा या जुगाड़ लगा के देश के बेहतरीन शिक्षा संस्थानों में पहुँच भी जाते हैं तों उन्हें जो मिलता है उसकी उपयोगिता पे प्रश्न चिन्ह बना हुआ है ? इसके अलावा हम सब परिवार में सीखी संस्कारों के नाम पर दी हुई गुण जिनमे बहुत अच्छे गुण के साथ कुछ कुरीतियाँ भी शामिल है , जिन्हें हम संस्कार ही समझते हैं और जो जिंदगी भर हमारी सोच पर हावी रहते हैं|

अगर आप युवा है, अगर आप नयी विचारधारा के हैं तो फिर अस्पृश्यता कैसी, इंसानों से भाईचारा ठीक है , लेकिन इस देश की तकदीर समझने वाली राजनीति से क्यों मुंह मोडना, ये देश आपका है , ये लोग आपके हैं , युग युगांतर से युवाओं ने ही परिवर्तन लाया है फिर आप किसी और की तरफ देख कर आसरा क्यों लगाते हैं, भारत को सिर्फ अभियंताओं, चिकित्सकों और नौकरशाहों की ही नहीं बल्कि प्रतिभाशाली और ईमानदार राजनेताओं की भी जरुरत है| देश के महत्वपूर्ण निर्णय लेने की जिम्मेदारी सिर्फ कुछ परिवारों वालों को ही क्यों|

हम सब कुंठित है, सब दुखी हैं, पर आशा नहीं खोयी हमने अभी तक| हमारी हालत भी उन हनुमान की तरह है जिन्हें जरुरत है कोई आ के याद दिलाये कि इन समस्याओं का निवारण भी हम युवायों से ही आएगा| जहाँ इतनी निराशाएं हैं वहीँ कई लोग लगे हुएं हैं समाज को बेहतर बनाने में|

स्थिति बेहद गंभीर है, चिंता जनक है पर युवाओं में आशा भी है|

आज फिर सूरज की तलाश में भटक सा गया था वो
अनभिज्ञ का अहंकार एक काले छिद्र सा तो है यूँ तो
आकाशगंगाओं की रौशनी कम पड़ जाती है जिस अनंत घनत्व में
जाने कितने ‘संदीप’ लगे थे फिर भी उस स्याह में उजाला लाने में|

कभी ना कभी, एक आत्ममंथन करना है, खुद को, समाज को, राष्ट्र को!

Image Courtesy: Google

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