कभी बहादुर शाह ज़फर के नगमो से फुसफुसाया मैंने अतीत के कानों में
महरौली के क़ुतुब से जामा मस्जिद के परकोटे तक
बितायी ज़िन्दगी मैंने सैकड़ों हसीं अफसानों में
की बार बार लुटकर भी संभलता रहा हूँ मै
गिर पड़े सारे लडखडाकर, पर चलता रहा हूँ मै
खिलजियों, तुग्लकों, मुगलों और चौहानों से होकर
कांग्रेसियों भाजपाइयों के बीच पलता रहा हूँ मैं
मै दिल्ली हूँ मै कभी आंसू नहीं बहाता हूँ
पर फिर भी छाती पर कुछ नामुरादों का बोझ उठाता हूँ
जो मर्द कहते हैं खुद को, मर्दानगी के झंडे फहराते हैं
उनकी काले करतूतों की काली रौशनी में हर रोज़ नहाता हूँ
की भेडिये तो पहले भी थे मांस नोचने वाले
की दुष्ट पहले भी थे सबका बुरा सोंचने वाले
लेकिन औरत के कपडे नोचने वाले पता नहीं कब पैदा हो गए
वासना की हलकी ऊष्मा में हर नारी-देह खरोचने वाले
कृष्ण का इंतज़ार मत कर, की द्रौपदी जंग तुम्हारी है
भीम क्यों मारे दुष्शासन को की अब तुम्हारी बारी है
ये आधे मर्द भी नहीं नामर्द है, कोढ़ मेरे शरीर का
निकाल फेकना इनको अब तुम्हारी ज़िम्मेदारी है
– अतुल कुमार मिश्रा